समय का परिंदा

रे उड़ता समय का परिंदा,
थोड़ा रुक, थोड़ा ठहर जा।
इतना है क्यों बेताब ?
नजाकत दुनिया को देख।

रक्तरंजित हो रहा संसार,
गर्वाग्नि प्रज्वलित हो रहा।
पसरा है बीमारी का तांडव,
क्यों हो रहा है विकराल।

ओहदे के पौ बारह हैं,
धरणी संकुचित हो रहा।
जीवन के दुर्दशा हिरासत में,
मालिक - मुख्तार का जमाना रहा।

गोलमाल का सदाव्रत रहता,
रुखाई का नौबत दुनिया है।
दौलत के प्रलोभन से,
रिआया का अपघात है।

मिथ्या का ही फितरत,
निश्छलता का भग्न हृदय है।
बेआबरू का है इज्जत,
अवधूत हो रहा मानवीयता।

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