देश की धरा ( कविता )



पवन - धरा - नीर हरियाली,
प्रातः कालीन का अनातप हो।
सागर - नदी - झील का संगम,
पारितंत्रीय अन्योन्याश्रय संबंध हो।
जैविक - अजैविक संघटको का ही,
प्रकृति का अपना प्रतिमान हो।
कहीं सूखा कहीं अतिवृष्टि छाया,
किसानों की अपनी विवशता हो।
अवनयन व जनसंख्या का ग्रास,
संसाधन न्यूनीकरण दोहन हो।
भौतिकवादी बन रहा अभिशाप,
नगरीय व औद्योगीकरण उत्कर्ष हो।
पर्यावरण का विकासोन्मुख,
प्रायोगिक - मौलिकवाद का अनुशीलन हो।
नैसर्गिक और मानव निर्मित,
मानव हस्तक्षेप की धारा हो।
पशु - पक्षी लुप्ते कगार पर,
जहां मशीनीकरण भक्षक हो।
वसंत ऋतु दिवस की बहार,
जहां नूतनवत् कलियां हो।
जीव जंतु पर्वत जलवायु मैदान,
जैवमंडल का प्रकाशसंश्लेषण काया हो।
पर्यावरण का संरक्षण उद्देश्य,
जहां सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता हो।
पर्यावरण ही हमारी संस्कृति,
जहां अपना देश  की भूमि धरा हो।

** वरुण सिंह गौतम



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