पलट रही विश्वकाया

मोहमाया  के जगत में,
अवमान - मान का तिलम है ।
सुख - दुःख का मिथ्या रिश्ता,
दर्द भरी कहानी है सबका ।
कोई  जीता  रो - रोकर....
आर्थिक के अभिशाप से ।
कोई जीता है हंस - हंसकर,
चोरी - डकैती - लूट - हत्या से
न  किसी का कभी था,
न  होगा  कभी  किसी  का ।
कहीं सत्ता की लूटपैठी है,
कहीं मजदूरी भी नसीब नहीं ।
क्या यहीं आदर्शवादी है ?
क्यों दिगम्बर हो रहा संसार !
वृक्ष - काश्त हो रही विरान,
पलट   रही   विश्वकाया ।
जल के लालायित है अब,
अब होंगे प्राणवायु के व्यग्रता ।
क्या होगा अब इस जगत का ! 
जब हो जाएगा मानव दुश्चरित्र ।


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