सत्य ( कविता )
सत्य की खोज में भटक रहे हैं ,
शब्द तो एक नहीं अनेक है ,
असली को नकली कहते हैं ,
जो नहीं है उसे खोजते हैं ।
यह परिवर्तनशील जगत है ,
यहां सब मिटने वाला है ,
अपरिवर्तित आसन पर ,
अभियंता को क्यों बैठाते हो ?
इस नश्वर संसार में ,
हर वस्तु अद्वितीय हैं ,
मानव सब अद्वितीय हैं ,
मेरा भी एक स्वरूप है ।
इस जगत के कण-कण का ,
अपना एक स्वरूप है ,
आध्यात्मिक स्वरूप नहीं ,
सबका भौतिक स्वरूप है ।
जग का कोई निर्माता नहीं ,
यह तो स्वयं सत्य है ,
आत्मा का अस्तित्व कहां ?
और न कोई परमात्मा है ।
सत्य का कोई स्वरूप नहीं ,
यह तो अक्षय ऊर्जा है ,
डार्क मैटर इसे कहते हैं ,
खोज जिसकी हो रही है ।
निर्माण वही बिनाश वही ,
उनको परिभाषित करते हो ,
मोक्ष का लोभ देकर क्यों ?
मानव को भरमाते हो ।
स्वर्ग , नरक का लोभ देकर ,
आतंक मचाया जाता है ,
ईश्वर की दुआई देकर ,
मानवता मारी जाती है ।
अब माया सब तुम समेट लो ,
पोल तुम्हारी खुलने वाली है ,
माया ईश्वर की कुछ नहीं ,
यह सब खेल तुम्हारा है ।
ऊर्जा पैदा होती मिट जाती है ,
अतः तो नाष्टता में ही पूर्णता है
जग का शाश्वत सत्य यही है
जीवन - मरण ही सत्य है ।
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