दीप जलाएं ( कविता )



मंहगी के बादल गरज रहे 
नयनों से आंसू बरस रहे
अट्टालिकाएं मुस्कुरा रहीं 
शासक मन-मयूर नाच रहे


चुनाव की बिजलियां चमक रहीं
 नेताओं के दिल धड़क रहे
 बेनकाब हो भ्रष्टाचार भींग रहे 
भावनाओं की छतरी टांग रहे


जन असंतोष की आंधी चल रही 
आश्वासनों से नहीं रुक रही 
नेताओं के बोल कीचड़ में फंस गए 
अपशब्दों से तू-तू मैं-मैं कर रहे


चुनाव की गर्मी बढ़ती जा रही 
कार्यकर्ता बुखार से तप रहे 
घृणा का घोर अंधकार छा गया 
विचार से जुगनू भी नहीं जलते


सिद्धांतहीन विचारविहीन हो
 सब इधर-उधर भटक रहे
 इतिहास भूगोल का ज्ञान नहीं 
गणेश परिक्रमा सभी कर रहे


व्यक्तिवाद का कर रहे प्रचार 
दलीय भावनाएं मिट गयीं
 अराजकता के अंधकार में
 आओ जनतंत्र के दीप जलाएं

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