सृष्टि ( कविता )
शून्य ,शून्य ,शून्य ,शून्य , मे
छिटक गयी एक ज्योति ।
कहां से कैसी आयी क्या पता ?
चतुर्दिक फैल गयी ज्योति ।
गैस पिंड बने बन गयी सृष्टि
सूरज चांद बने बन गयी धरती ।
आई ज्योति चमक गयी धरती
सब जीवों से भर गयी धरती ।
अनवरत प्रक्रिया विकास का
चिरन्तन सत्य है जीवन का ।
चेतना प्रकाश जीवन शक्ति का
मृत्यु अंधकार है छाया शक्ति का ।
सृष्टि रचना के दो छोर हैं
नीचे अंधकार ऊपर प्रकाश है ।
आओ दोनों छोड़ो को मिला दे
अंधकार को प्रकाश से भर दे ।
जगत माया नहीं चेतना का रूप है
द्रव्य , जड़ और आत्मा दोनों एक हैं ।
आत्मा ही तो जड़ को बनाती है
आत्मा का घनीभूत पिण्ड जड़ है ।
यह जगत युद्ध का मैदान है
प्रेम और मृत्यु सदा युद्धरत है ।
जगत में जन्म मृत्यु का द्वैत है
परम प्रेम से अद्वैत बन जाता है ।
अज्ञान अंधकार ज्ञान प्रकाश है
मोक्ष और नहीं ज्ञान ही मोक्ष है ।
अज्ञान से ज्ञान की ओर चलो
मृत्यु को अमरत्व में बदल दो ।
मुक्त और विज्ञान पुरुष बनकर
मन प्राण और शरीर को बदल दो ।
चलो विशुद्ध चेतना की ओर चलें
दीप जीवन को पृथ्वी पर उतार दे ।
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