रणभेरी
आसमान में फूल खिले हैं,
धरती क्यों मुरझाई है ?
बढ़ रहे विकास के तीव्र कदम,
उदासी क्यों छायी है ?
खोज रहे नीर चांद पर,
महंगाई भी बढ़ती जाती है ।
बन रहे मक्का से ईंधन,
गरीबी की थाली सूनी है ।
दौर रहा वायदा बाजार,
झेल रहे कुपोषण की मार ।
बढ़ रहा दौलत बेशुमार,
भूखों की बढ़ती जाती कतार ।
कोई दाने-दाने को मुंहताज,
कोई खा - खाकर पड़े बीमार ।
पूंजी की माया यह संसार,
कब होगा इसका बंटाढार ?
रहा नहीं सिद्धांत किसी का,
सब झूठे सपने बेच रहे हैं ।
मिल न रहा विकल्प कोई,
अंधेरे में भटक रहे हैं ।
काले धन के साये में देखो,
जनतंत्र सिसक रहा है ।
क्रोध है पर विरोध नहीं,
रणभेरी कौन बजा रहा है ?
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