राजनीति - तब और अब
राजनीति की आत्मा
सिद्धांतों और विचारों में
निवास किया करती थी
आज वह अंधेरी गली में
विचारहीन सिद्धांतविहीन
शून्य में खो गयी है
राजनीति जनहित और
सामूहिक भावना में
सदा बहा करती थी
आज क्षेत्रीयता और
जाति धर्म के दलदल में
फंसकर रह गयी है
व्यक्तिगत दलगत राजनीति में
सेवा और त्याग की भावना
कपोल कल्पित कहानी बन गयी
आज हताशा और ऊहापोह में
राजनीतिक पेशा बनकर
बेकारों का सहारा बन गयी
लोकतंत्र चलता आया है
विधानमंडल और संसद में
वाद - विवाद और संवाद से
आज शोरगुल हुड़दंग मे
नेताओं के शब्द खोखले हैं
और विचार बोथड़े हो गए हैं
समझौता, समर्थन और विरोध
इसका फैसला होता था
सड़कों पर और संसद में
आज होता है बंद कमरों में
मोल-तोल होता है दलहित में
मत बेचा खरीदा जाता है
सांसद निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दे का
देशहित में बलिदान देते थे
आज देशहित का बलिदान
व्यक्तिगत हित में देते हैं
विरोध का ना कोई अर्थ रहा
और ना कोई सार्थक तर्क रहा
हर चुनाव में आकर नेता
आदतन वादा करते हैं
आशा की डोर में बंधकर
आदतन जनता एतबार करती है
हर बार नेता के सभी वादे
खोखले होकर रह जाते हैं
भारतीय परंपरा और
संस्कृति की दुहाई देते हैं
जनता के हित का लबादा
सभी पार्टियों औढ़ती हैं
वर्गीय राजनीति के बदले
वर्ण की राजनीति करते हैं
टिप्पणियाँ