देवत्व ( कविता )

कवियों , कथाकारों , पुराणों ने 
देवत्व शब्द को उछाला है 
आकाश से ऊपर अंतरिक्ष में 
एक छोर से दूसरे छोर तक ।


चारों और अनंत छोर तक
 देवताओं को फैला दिया है 
महान अमृत देवत्व को 
कूट-कूट कर भरी दिया है ।


पर धरती पर हमने देखा है
 पुराणों की कथाओं में पढ़ा है 
मानवीय विकारों की कालिख
 पोते देबू चौराहों पर खड़े हैं ।


उनके श्राप और वरदान के
 कुटिल चालों को देखा है 
श्राप से अत्याचार करते 
बलात्कार का वरदान देते देखा है ।


 उनको सांसारिक बंधनों में 
हमने बंधते देखा है 
क्रोध में थर - थर कांपते और 
पशुत्व को उभरते देखा है ।


देवताओं के स्थान स्वर्ग में 
सुखों का अम्बार देखा है 
विश्व सुंदरी अप्सराओं को
 मदिरापान कराते देखा है ।


एक जमींदार सामंत के रूप में
उनको रहते हमने देखा है 
भय दिखा और लोभ देकर 
अपना वर्चस्व जमाते देखा है ।


 जमींदार और सामंतों ने
 अपने शोषण अत्याचारों को 
देवत्व का रूप देने के लिए
 देवताओं की कल्पना की है ।


देवताओं को देवत से कोई
 तिलभर भी संबंध नहीं है 
बल्कि पशुतत्व का गुण ही उनमें
 पूरी तरह भरा - पड़ा है ।


 देवत्व की कल्पना क्या 
भारतीय जीवन दृष्टि है ?
 यह कज्ञ कुछ लोगों ने 
भारत को बदनाम किया ।

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