खतरा ( कविता )



आसमान में बादल छाए ,
सूरज ने मुंह फेर लिया ।
आयी धरती पास विधाता ,
जीर्ण- शीर्ण थी उसकी काया ।


पूछा ब्रह्मा ने क्या हाल है ?
बोलो क्यों इतनी बेहाल है ?
षष्ठ अरब हैं संतान हमारी ,
फिर भी आबादी बढ़ती जाती है ।


ऊंच-नीच का भेद भरा है ,
आपस में मानव लड़ते हैं ।
बन गए हैं भयानक रसायन बम ,
अणु बम की संख्या बढ़ती जाती है ।


साथ बार नष्ट हो जाएंगे हम ,
इतनी संख्या बम की रखी है ।
मानव में हाहाकार मचा है ,
फिर भी बनाने में होड़ लगी है ।


क्षणिक सुख फॉर्म पाने की खातिर ,
मानव अंधा हो रहा है ।
बढ़ रही गरीबी - भूखमरी ,
आधी आबादी मर रही है ।


फैल रही है करोना बीमारी ,
मानव की दुर्गति हो रही है ।
धर्म , राष्ट्र और जाति में बंटकर ,
एक - दूसरे का गला दबा रहे हैं ।


कट रहे हैं वन - उपवन सारे ,
पर्यावरण दूषित हो रहा है ।
चारों ओर कार्बन छा रहा है ,
ऑक्सीजन सिमटा जाता है ।


पिघल रहे हैं बर्फ पर्वत पर ,
वायुमंडल गर्म हो रहा है ।
डूब जाएंगे तट के प्रदेश सारे ,
समुद्र की चौहद्दी बढ़ रही है ।


ओजोन पतला होता जाता है ,
छेद कई जगह दिखाई पड़ते हैं ।
कुछ सूझ नहीं रहा है मुझको ,
बिनाश समारा निकट है ।


शांत - शांत तुम शांत हो जाओ ,
दूर है तारे अभी जलने में देर है ।
उनसे तुम्हें कोई खतरा नहीं ,
मानव ज्ञान बढ़ता जा रहा है ।


धरती पर महा परीक्षण हो रहा ,
सृष्टि के रहस्य खुल रहे हैं ।
सभी देव जन्म ले चुके हैं ,
स्वर्ग अब नष्ट हो चुका है ।


सड़ी मनुष्यता मर रही पुरानी ,
नया महामानव बनने वाला है ।
सभी संसार के नागरिकों बनेंगे ,
अब ना कोई देश - राष्ट्र रहेगा ।


एक धार्मिक संसार बनेगा ,
न कोई धर्म - संप्रदाय रहेगा ।
विध्वंसक वैज्ञानिक नहीं रहेंगे ,
सृजन को समर्पित विज्ञान होगा ।


अतीत का बोझ नहीं रहेगा ,
नया मानव उभरकर आयेगें ।
नए मानव की नई चेतना होगी ,
जाओ अब तेरे दिन फिरेंगे ।


वर्ग शोषण विहीन समाज बनेगा ,
एक नया संसार बसेगा ।
कर्म की दीप में ज्ञान की बाती जलेगी ,
उस ज्योति से अंधकार लुप्त हो जाएगा ।



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