छः दिसंबर



छः दिसंबर की काली तारीख 
हर साल आती रहती है
 नफरत की भयंकर आग की
 बरबस याद दिलाती रहती है 


बाबरी मस्जिद का ढांचा 
जब जमींनदोज हो गया था 
घृणा की प्रचंड ज्वाला में 
धर्मनिरपेक्षता जल उठी थी 


आजादी व प्रजातंत्र के माथे पर 
कलंक का टीका लग गया था 
हजारों मौत के घाट उतर गए
 मानवता तब कराह उठी थी 


पुराने जख्म को कुरेद नहीं रहे
 हकीकत खुद बयान कर रही 
दो दशक बीत गए अब तक 
क्या किसी को सजा हुई ?


 राजनीति से विचार निकल गया 
सभी सुविधाग्रस्त हो गए हैं 
संप्रदायिकता की धारा में 
सभी बहते चले जा रहे हैं 


संसद और न्यायालय भी 
इन प्रश्न पर मौन क्यों है 
इन तारीख का जिक्र करना
 गुनाह बन कर रह गया है

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