माल पुजारी पाता है ( कविता )

अध्यात्म मकड़ जाल है
 बीच में ईश्वर बैठे हैं
 कीट - पतंग मानव फंसते हैं
 मोक्ष प्राप्त हो जाता है 
माल पुजारी पता है ।


आस्था , विश्वास श्रद्धा के
 धागों से जाल बुना जाता है 
अध्यात्म ईश्वर रहस्य हैं
 मानवता कराहती रहती है 
माल पुजारी पाता है ।


अध्यात्म अंधविश्वास है 
भौतिकवाद तो विज्ञान है 
आत्मा - परमात्मा मानने वाला 
दुर्गुणों में सदा फंसता है 
माल पुजारी पाता है ।


आत्म - दर्शन की दे दुहाई
 भोगवादी बनते देखा है 
भौतिकवाद की हर भर्त्सना कर
 अपने पापों को छिपाता है 
माल पुजारी पाता है ।


विज्ञान की प्रगति से डर कर
 अध्यात्म - विज्ञान मिलाता है
आत्मवादी देहवादी बनता है 
सत्य से मुंह चुराता है 
माल पुजारी पाता है ।


शब्दों के मकड़ जाल में 
मानव को फंसाता है 
परमात्मा को ऊपर भेज 
धरती पर भोग लगाता है 
माल पुजारी पाता है ।


सेक्स -  सुरा की छाया में 
अध्यात्म दर्शन होता है 
कल्पना में आत्मा - परमात्मा
  भौतिक सुखों को भोगता है 
माल पुजारी पाता है ।


 जोग , जप , तप के तीरों से 
मानवता मरती आयी है 
मानवता की दुहाई देकर
 दानव बनते देखा है 
माल पुजारी पता है ।


अध्यात्म को करते प्रचार
 कर रहे शोषण  - अत्याचार 
त्याग का पर उपदेश देखकर 
स्वयं सूख भोगता है
माल पुजारी पता है ।


 ईश्वर की तानाशाही में 
पशु तत्व विचरता है
  क्रांति की ज्वाला में 
अध्यात्म भस्म हो जाता है
 मालपुजारी पाता है ।

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