युग पीड़ित ( कविता )
सतयुग ने हमें सताया था
त्रेता ने हमें त्रस्त हुए थे
द्वापर ने हमें रुलाया था
कलयुग ने सब को हरा दिया
सतयुग में गुलामी प्रथा थी
मानव की नीलामी होती थी
राजा हरिश्चंद्र ने बेच दिया
पत्नी-पुत्र,निज को चढ़ा दिया ।
त्रेता में निष्कासित हुई थी
वह गर्भवती रानी थी
नारी की दुर्दशा देखकर
किसको दया आयी थी ?
भरी सभा में हुआ चीरहरण
सभी दाव पर चढ़े थे
नारी को नहीं न्याय मिला
वह द्वापर का युग था ।
अब कलियुग की बात ना पूछो
वह जीवन से खेल रहा है
आधी आबादी को देखो
रोटी के लाले पड़े हैं ।
रोजगार और शिक्षा के
ठिकानों पर ताले पड़े हैं
नंगे पैर घूम रहे हैं
पांव में छाले पड़े हैं
मासूमों को कौन बचावे ?
अस्पताल में दवा नहीं है
अत्याचार का मौसम है
हाथ - पांव काले पड़े हैं ।
विलासिता की दासता में
आज नवजवान पड़े हैं
हर चिंता की धुएं में
उड़ाते चले जा रहे हैं ।
दलितों और अबलाओं को
सब युगों ने सताया है
गुलामी की जंजीरों में
सदा बांधता आया है ।
जब तक भाग्य भगवान हैं
पीड़ितों को उद्धार न होगा
संघर्ष की आग में तपकर
एक नया संसार बनेगा ।
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