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अक्टूबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कामना ( कविता )

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सुंदर हो यह देश हमारा  सुंदर हो यह संसार  सुंदर सब मानव हो  सुंदर हो गांव - जवार । सब के पेट में अन्न हो हो सबके तन पर वस्त्र मानवता जन-जन में भरी हो कहीं कोई नहीं हो त्रस्त । सब के माथे पर छत हो  सबका सुंदर हो परिधान  बेकारी मिट जाए जग से  सबका हो सम्मान समान ।  सपत्ति का सम वितरण हो  सबको मिले खेत खलियान  मानव - मानव का भेद मिटे  मानव सब हों एक समान  हरी-भरी यह धरती हो  कलरव से गूंजे आसमान  वन उपवन सब सुंदर हो  मधुर - मधुर कोयल की गान । सब और मुस्कुराते फूल खिलें  मंद - मंद बहे मधुर बयार  सृष्टि सुगंध से भर जाए  सुंदर हो मानव का व्यवहार ।

खतरा ( कविता )

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आसमान में बादल छाए , सूरज ने मुंह फेर लिया । आयी धरती पास विधाता , जीर्ण- शीर्ण थी उसकी काया । पूछा ब्रह्मा ने क्या हाल है ? बोलो क्यों इतनी बेहाल है ? षष्ठ अरब हैं संतान हमारी , फिर भी आबादी बढ़ती जाती है । ऊंच-नीच का भेद भरा है , आपस में मानव लड़ते हैं । बन गए हैं भयानक रसायन बम , अणु बम की संख्या बढ़ती जाती है । साथ बार नष्ट हो जाएंगे हम , इतनी संख्या बम की रखी है । मानव में हाहाकार मचा है , फिर भी बनाने में होड़ लगी है । क्षणिक सुख फॉर्म पाने की खातिर , मानव अंधा हो रहा है । बढ़ रही गरीबी - भूखमरी , आधी आबादी मर रही है । फैल रही है करोना बीमारी , मानव की दुर्गति हो रही है । धर्म , राष्ट्र और जाति में बंटकर , एक - दूसरे का गला दबा रहे हैं । कट रहे हैं वन - उपवन सारे , पर्यावरण दूषित हो रहा है । चारों ओर कार्बन छा रहा है , ऑक्सीजन सिमटा जाता है । पिघल रहे हैं बर्फ पर्वत पर , वायुमंडल गर्म हो रहा है । डूब जाएंगे तट के प्रदेश सारे , समुद्र की चौहद्दी बढ़ रही है । ओजोन पतला होता जाता है , छेद कई जगह दिखाई पड़ते हैं । कुछ सूझ नहीं रहा है मुझको , बिनाश समारा निकट है । शांत - श...

नवोदय विद्यालय का परिचय (कविता)

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नवोदय , नवोदय , नवोदय राजीव  गांधी  का  सपना भारत  सरकार  का कापना छात्र - छात्राओं  का  सपना राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के तहत 27  राज्यों  और 8  संघ शासित राज्यों   के   प्रत्येक   जिलों   में आवासीय विद्यालय की अवधारणा नवोदय  एक स्वायत्त संगठन संपूर्ण वित्तीय सहायता प्राप्त जहां  चयन  परीक्षा  माध्यम कक्षा  षष्ठ , नवम् , इलेवन् जहां मिलती है मातृभाषा , क्षेत्रीय और अंग्रेजी भाषा का संपूर्ण ज्ञान जहां छात्रों को मिलती है मुफ्त में यूनिफॉर्म, पाठ्य पुस्तकें, स्टेशनरी विद्यालय में प्रवेश 75% ग्रामीण क्षेत्रों से एससी और एसटी समुदाय का आरक्षित 3% सीटों का हकदार विकलांग बच्चों  और  शेष सीटों की उपलब्धता शहरी क्षेत्रों के लिए नवोदय  विद्यालय  का  मूल उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण और राष्ट्रीय एकता समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की समझ को विकसित और बढ़ावा देने का प्रयास

सीता - द्रौपदी संवाद ( कविता )

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कवि - स्वर्ग में बैठी थी सीता उदास  आयी द्रोपदी उनके पास  उनके चरण स्पर्श किया  सीता ने आशीर्वाद दिया । द्रोपदी - आज भारत में बहस हो रही है  नारी को आरक्षण मिल रहा है  सभा में मेरा अपमान हुआ था  पक्ष किसी ने नहीं लिया था । सीता -  तुम तो अकेले लड़ती रही  मैंने कभी विरोध नहीं किया  गुड़िया बनकर बैठी रही  घर का काम करती रही । द्रोपदी - मैं तो जंगलों में भी खटती थी  सदा बलात्कार से डरती रही  जयद्रथ को सबक सिखाया  कीचक को मृत्युदंड दिया । सीता - मैं तो सदा निर्भय बनी रही  छुईमुई सी दिखती रही  न दुख भोगी , न संघर्ष किया  विरह आग में जलती रही द्रोपदी - जब मेरे पुत्रों की हत्या हुई  मर्मान्तक पीड़ा भोगी थी  फिर भी साहस नहीं छोड़ी  पतियों को संभालती रही । सीता - वेदों में लोपामुद्रा ऋषि थी  वह और माधवी विद्रोही थी  नारी का एक संगठन था  पुरुषों से लड़ती रहती थी  द्रोपदी - आप तो मुझसे पहले आयी वेद की परंपरा क्यों नहीं रही ? नारी का अधिकार नहीं रहा  विद्रोही नारी क्यो...

युग पीड़ित ( कविता )

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सतयुग ने हमें सताया था  त्रेता ने हमें त्रस्त हुए थे  द्वापर ने हमें रुलाया था  कलयुग ने सब को हरा दिया  सतयुग में गुलामी प्रथा थी  मानव की नीलामी होती थी  राजा हरिश्चंद्र ने बेच दिया  पत्नी-पुत्र,निज को चढ़ा दिया । त्रेता में निष्कासित हुई थी  वह गर्भवती रानी थी  नारी की दुर्दशा देखकर  किसको दया आयी थी ? भरी सभा में हुआ चीरहरण  सभी दाव पर चढ़े थे  नारी को नहीं न्याय मिला  वह द्वापर का युग था ।  अब कलियुग की बात ना पूछो  वह जीवन से खेल रहा है  आधी आबादी को देखो  रोटी के लाले पड़े हैं । रोजगार और शिक्षा के  ठिकानों पर ताले पड़े हैं  नंगे पैर घूम रहे हैं  पांव में छाले पड़े हैं  मासूमों को कौन बचावे ?  अस्पताल में दवा नहीं है  अत्याचार का मौसम है  हाथ - पांव काले पड़े हैं ।  विलासिता की दासता में  आज नवजवान पड़े हैं  हर चिंता की धुएं में  उड़ाते चले जा रहे हैं । दलितों और अबलाओं को  सब युगों ने सताया है  गुलामी की जंजीरों में...

सत्य ( कविता )

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सत्य की खोज में भटक रहे हैं ,  शब्द तो एक नहीं अनेक है ,  असली को नकली कहते हैं , जो नहीं है उसे खोजते हैं ।  यह परिवर्तनशील जगत है ,  यहां सब मिटने वाला है ,  अपरिवर्तित आसन पर ,  अभियंता को क्यों बैठाते हो ?  इस नश्वर संसार में ,  हर वस्तु अद्वितीय हैं ,  मानव सब  अद्वितीय हैं ,  मेरा भी एक स्वरूप है । इस जगत के कण-कण का , अपना एक स्वरूप है ,  आध्यात्मिक स्वरूप नहीं , सबका भौतिक स्वरूप है ।  जग का कोई निर्माता नहीं ,  यह तो स्वयं सत्य है , आत्मा का अस्तित्व कहां ?  और न कोई परमात्मा है ।  सत्य का कोई स्वरूप नहीं , यह तो अक्षय ऊर्जा है , डार्क मैटर इसे कहते हैं ,  खोज जिसकी हो रही है । निर्माण वही बिनाश वही ,   उनको परिभाषित करते हो ,  मोक्ष का लोभ देकर क्यों ? मानव को भरमाते हो ।   स्वर्ग , नरक का लोभ देकर , आतंक मचाया जाता है , ईश्वर की दुआई देकर , मानवता मारी जाती है । अब माया सब तुम समेट लो , पोल तुम्हारी खुलने वाली है ,  माया ईश्वर की कुछ नहीं ,  यह सब खेल तुम्...

देवत्व ( कविता )

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कवियों , कथाकारों , पुराणों ने  देवत्व शब्द को उछाला है  आकाश से ऊपर अंतरिक्ष में  एक छोर से दूसरे छोर तक । चारों और अनंत छोर तक  देवताओं को फैला दिया है  महान अमृत देवत्व को  कूट-कूट कर भरी दिया है । पर धरती पर हमने देखा है  पुराणों की कथाओं में पढ़ा है  मानवीय विकारों की कालिख  पोते देबू चौराहों पर खड़े हैं । उनके श्राप और वरदान के  कुटिल चालों को देखा है  श्राप से अत्याचार करते  बलात्कार का वरदान देते देखा है ।  उनको सांसारिक बंधनों में  हमने बंधते देखा है  क्रोध में थर - थर कांपते और  पशुत्व को उभरते देखा है । देवताओं के स्थान स्वर्ग में  सुखों का अम्बार देखा है  विश्व सुंदरी अप्सराओं को  मदिरापान कराते देखा है । एक जमींदार सामंत के रूप में उनको रहते हमने देखा है  भय दिखा और लोभ देकर  अपना वर्चस्व जमाते देखा है ।  जमींदार और सामंतों ने  अपने शोषण अत्याचारों को  देवत्व का रूप देने के लिए  देवताओं की कल्पना की है । देवताओं को देवत से कोई  तिलभर ...

माल पुजारी पाता है ( कविता )

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अध्यात्म मकड़ जाल है  बीच में ईश्वर बैठे हैं  कीट - पतंग मानव फंसते हैं  मोक्ष प्राप्त हो जाता है  माल पुजारी पता है । आस्था , विश्वास श्रद्धा के  धागों से जाल बुना जाता है  अध्यात्म ईश्वर रहस्य हैं  मानवता कराहती रहती है  माल पुजारी पाता है । अध्यात्म अंधविश्वास है  भौतिकवाद तो विज्ञान है  आत्मा - परमात्मा मानने वाला  दुर्गुणों में सदा फंसता है  माल पुजारी पाता है । आत्म - दर्शन की दे दुहाई  भोगवादी बनते देखा है  भौतिकवाद की हर भर्त्सना कर  अपने पापों को छिपाता है  माल पुजारी पाता है । विज्ञान की प्रगति से डर कर  अध्यात्म - विज्ञान मिलाता है आत्मवादी देहवादी बनता है  सत्य से मुंह चुराता है  माल पुजारी पाता है । शब्दों के मकड़ जाल में  मानव को फंसाता है  परमात्मा को ऊपर भेज  धरती पर भोग लगाता है  माल पुजारी पाता है । सेक्स -  सुरा की छाया में  अध्यात्म दर्शन होता है  कल्पना में आत्मा - परमात्मा   भौतिक सुखों को भोगता है  माल पुजारी पाता ...

नरेंद्र मोदी की गाथा ( कविता )

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नरेंद्र मोदी सब के साथी सबके चहेते , सबके अंदर गुजरात में जन्मे नरेंद्र मोदी तृतीय    पुत्र    कहलाये । चाय बेचकर सेवा की अपने पिता की अब दूसरी बार प्रधानमंत्री बन कर कर रहे सेवा मातृभूमि की । नरेंद्र मोदी की संघर्ष की कहानी उनकी गाथा सबसे पुरानी उनका जीवन संघ प्रारंभ हुआ   निष्ठावन  प्रचारक  रूप  में । कभी दार्शनिक बने तो कभी कार्यकर्ता कभी-कभी तो रणछोड़ भी कहलाएं प्रत्यागत हुए 1985 ईसवी में भारतीय जनता पार्टी से जुड़ कर । पथप्रदर्शक और सार्वजनिक छवि के कारण 2001 इस्वी में गुजरात के मुख्यमंत्री बने भ्रष्टाचारी दूर करके , धर्मनिरपेक्षता पालन करते हुए बालभोग,ज्योति ग्राम जैसे कई योजनाएं  लागू किए। आतंकवाद निरोधक अधिनियम पर सवाल उठाए विवाद और आलोचनाएं से विमुख नहीं हुए और गुजरात में अभूतपूर्व नीतियों से सामाजिक , आर्थिक एवं सांस्कृतिक में विकास हुआ । लोकसभा चुनाव जीत कर शपथ ग्रहण से 2014 में, 14 वें प्रधानमंत्री के रूप में कार्यवाहक बने देश के विकास के लिए भूटान , मालदीव जैसे देशों का दौरा करके अंतरराष्ट्रीय संबंध मजबूत बनाएं । योजन...

फागुन ( कविता )

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कोयल कुक उठाए पैड़ो पर ,  मलय पवन बहने लगा ,  गुनगुना रहे भ्रमण के दल ,  पराग पवन में उड़ रहा । झड़ गये जीर्ण पीले पत्ते , आम्र मंजर चमकने लगे ,  झड़ रहे पलाश के फूल ,  बसंत आया फागुन लाया । पतझड़ था जीवन वसंत में , प्रेम का अंकुर फूट गया , प्रेम दिवस मना शांति से , फागुन सबको बौरा गया ।  वसंत की शर्मीली आंखें , फागुन में बाबरी बन गयी ,  प्रेम सबमें उन्माद फैलाया  फागुन उत्तेजित कर दिया । शांत था प्रेम रात में , प्रातः फागुन जगा दिया , जो कुछ छिपा था दिल में , फागुन उसे लुटा दिया । फागुन के मौसम में , होली की मस्ती छायी ,  देख छिटकी चांदनी , मचल उठी तरुणाई ।, मुंह लाल गुलाबी आंखें ,  हाथों में लिए पिचकारी , कपड़ों पर रंग के छींटे हैं , बिन बात मुस्कुरायी प्यारी । घर-घर करती धमाल ,  निकली बासंती टोली , मन बहके , तन लहके ,   दिलों में मद की मस्ती छायी ।  मन में अबीर - गुलाल , यौवन ने ली अंगड़ाई , महुए के मद में झूलती , लड़खराती आई होली ।   रात रानी के संग में , गुलमोहर खेले होली , जिसके पिया परदेस बसा , वह क...

भौतिकवाद ( कविता )

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कौन कहता है भौतिकवाद  दर्शन है पश्चिम का ?  जब चलना नहीं सीखा था  भारत ने ज्ञान दिया वेदों का  जब वेदों की बदली छायी  उठा था धुआं यज्ञों का  हिंसा का तांडव नृत्य हुआ  घोर तिमिर छाया भ्रम का ।  छिटकी थी बिजली नग में  तब लोकायत दर्शन का  गुरु बृहस्पति ने ज्ञान दिया  मानव को भौतिकवाद का । बेकर ने आधुनिक रूप दिया  हाब्स - लॉक ने सींचा था  वैज्ञानिक भौतिकवाद के तरु पर  मार्क्सवाद का फूल खिला था ।  ' मरनामेवे अपवर्ग : ' सुनकर  मोक्ष मारा-मारा फिरता था  ' भीष्मभूतस्य देहस्य ' के स्वर ने  पुनर्जन्म का भ्रमण मिटाया था । ' यावज्जीवते सुखम जीवेत '  का जीवन स्वर लहराया था  मौत का भय समाप्त हुआ  मानव जीवन मुस्कुराया था ।  भीषण और अजीत चार्वाकों ने   लोकायत का झंडा फहराया था ऋषियों का षट् - दर्शन आया  उन पर चार्वाक दर्शन भारी था । मानवीय गुणों से पूर्ण पुरुष  अवगुण हीन तो ईश्वर है  परंतु ईश्वर के अवतारों को  दुर्गुणों में लथपथ देखा है । जब हृदय में ईश्वर आ...

गुब्बारा ( कविता )

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गुब्बारा ,     गुब्बारा    सबसे    अच्छा    गुब्बारा गुब्बारा    गुब्बारा    दिल   का    प्यारा   गुब्बारा कभी आती है , दुर्गा मेला में तो कभी मेला ठेला में दिल को भाती , बच्चों को भी भाती , सबको भाती गुब्बारा   के   जैसा   कोई   खिलौना   नहीं गुब्बारा    के    जैसा    कोई    साथी   नहीं बच्चे  के  साथ  दिल  खोलकर  मिल  जाती बच्चे  की  हर  सुख - दुख   में   साथ  देती गुब्बारा   कभी    त्रिकोणकार   तो    कभी   गोलाकार गुब्बारा   कभी  तो  गेंद  के  जैसा  गोल -  मटोलाकार गुब्बारा  कभी  तो  सेव  जैसा तो  कभी  अमरुद  जैसा गुब्बारा कभी रंग-बिरंगे कभी तो लाल पीला या सतरंगा गुब्बारा  मेला  ...

सृष्टि ( कविता )

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शून्य , शून्य , शून्य , शून्य , मे छिटक गयी एक ज्योति । कहां से कैसी आयी क्या पता ? चतुर्दिक फैल गयी ज्योति । गैस पिंड बने बन गयी सृष्टि सूरज चांद बने बन गयी धरती । आई ज्योति चमक गयी धरती सब जीवों से भर गयी धरती । अनवरत प्रक्रिया विकास का  चिरन्तन सत्य है जीवन का ।  चेतना प्रकाश जीवन शक्ति का  मृत्यु अंधकार है छाया शक्ति का । सृष्टि रचना के दो छोर हैं  नीचे अंधकार ऊपर प्रकाश है । आओ  दोनों छोड़ो को मिला दे  अंधकार को प्रकाश से भर दे । जगत माया नहीं चेतना का रूप है  द्रव्य , जड़ और आत्मा दोनों एक हैं ।  आत्मा ही तो जड़ को बनाती है  आत्मा का घनीभूत पिण्ड जड़ है । यह जगत युद्ध का मैदान है  प्रेम और मृत्यु सदा युद्धरत है । जगत में जन्म मृत्यु का द्वैत है  परम प्रेम से अद्वैत बन जाता है । अज्ञान अंधकार ज्ञान प्रकाश है  मोक्ष और नहीं ज्ञान ही मोक्ष है । अज्ञान से ज्ञान की ओर चलो मृत्यु को अमरत्व में बदल दो । मुक्त और विज्ञान पुरुष बनकर  मन प्राण और शरीर को बदल दो । चलो विशुद्ध चेतना की ओर चलें  दीप जीवन को पृथ्व...

देखता रहता हूं ( कविता )

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तुम आती हो या जाती हो  तुम हंसती हो या गाती हो  तेरी छाया से भी प्यार करता हूं  तुझे देखता तो देखता रहता हूं  तुम मेरे नयनों में बसती हो  मैं तेरे नयनों में बसता हूं  जी चाहता है कि बाहों में भर लूं तुझे देखता तो देखता रहता हूं  तेरी आंखों ने दिल चुरा लिया  मैंने तुझे आंखों में भर लिया  प्यार करता रहूंगा प्यार करता हूं  तुझे देखता तो देखता रहता हूं मां पुत्र को प्यार करती है  पत्नी पति को प्यार करती है  भाई बहन को प्यार करता है  मैं भी तुझको प्यार करता हूं तुझे देखता तो देखता रहता हूं मैं भी तुझको प्यार करता हूं  हर प्यार की एक सीमा होती है  कृष्ण राधा को प्यार किया था  सीमा में रहकर मैं भी प्यार करता हूं तुझे देखता तो देखता रहता हूं

दीप जलाएं ( कविता )

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मंहगी के बादल गरज रहे  नयनों से आंसू बरस रहे अट्टालिकाएं मुस्कुरा रहीं  शासक मन-मयूर नाच रहे चुनाव की बिजलियां चमक रहीं  नेताओं के दिल धड़क रहे  बेनकाब हो भ्रष्टाचार भींग रहे  भावनाओं की छतरी टांग रहे जन असंतोष की आंधी चल रही  आश्वासनों से नहीं रुक रही  नेताओं के बोल कीचड़ में फंस गए  अपशब्दों से तू-तू मैं-मैं कर रहे चुनाव की गर्मी बढ़ती जा रही  कार्यकर्ता बुखार से तप रहे  घृणा का घोर अंधकार छा गया  विचार से जुगनू भी नहीं जलते सिद्धांतहीन विचारविहीन हो  सब इधर-उधर भटक रहे  इतिहास भूगोल का ज्ञान नहीं  गणेश परिक्रमा सभी कर रहे व्यक्तिवाद का कर रहे प्रचार  दलीय भावनाएं मिट गयीं  अराजकता के अंधकार में  आओ जनतंत्र के दीप जलाएं