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अगेय की ओर ( रसवन्ती से )

गायक, गान, गेय से आगे  मैं अगेय स्वन का श्रोता मन ।           (१) सुनना श्रवण चाहते अबतक  भेद हृदय जो जान चुका है ;  बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन  निज को कर दान चुका है।  खो जाने को प्राण विकल हैं  चढ़ उन पद - पद्मों के ऊपर  बाहु - पाश से दूर जिन्हें विश्वास   हृदय का मान चुका है। जोह रहे उनका पथ दृग,  जिनको पहचान गया है चिन्तन ।  गायक, गान, गेय से आगे  मैं अगेय स्वन का श्रोता मन ।             (२) उछल - उछल बह रहा अगम की  ओर अभय इन प्राणों का जल;  जन्म - मरण की युगल घाटियाँ  रोक रहीं जिसका पथ निष्फल । मैं जल- नाद श्रवण कर चुप हूँ;  सोच रहा यह खड़ा पुलिन पर; है कुछ अर्थ, लक्ष्य इस रव का या 'कुल कुल, कल कल' ध्वनि केवल ? दृश्य, अदृश्य कौन सत् इनमें ?  में या प्राण - प्रवाह चिरन्तन ?  गायक, गान, गेय से आगे  मैं अगेय स्वन का श्रोता मन ।              (३) जलकर चीख उठा वह कवि था,  साधक जो नीरव तपने में ;...

सम्बल (रसवन्ती से)

सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं।               (१) निज सागर को थाह रहा हूँ,  खोज गीत में राह रहा हूँ, पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं।                   (२) वातायन शत खोल हृदय के,  कुछ निर्वाक् खड़ा विस्मय से, उठा द्वार - पट चकित झाँक अपनेपन को पहचान रहा मैं।            (३) ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ,  उन्मन - सा कुछ बोल रहा हूँ, मन का अलस खेल यह गुनगुन, सचमुच, गीत बना न रहा मैं।             (४) देखी दृश्य - जगत् की झाँकी,  अब आगे कितना है बाकी ? गहन शून्य में मग्न, अचेतन, कर अगीत का ध्यान रहा मैं।               (५) चरण - चरण साधन का श्रम है, गीत पथिक की शान्ति परम है, ये मेरे सम्बल जीवन के, जग का मन बहला न रहा है।              (६) एक निरीह पथिक निज मग का, मैं न सुयश - भिक्षुक इस जग का,  अपनी ही जागृति का स्वर यह, बन्धु और कुछ गा न रहा मैं। सो...

प्रतीक्षा (रसवन्ती से)

अयि सङ्गिनी सुनसान की !               (१) मन में मिलन की आस है,  दृग में दरस की प्यास है, पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे  उसका पता मिलता नहीं, झूठे बनी धरती बड़ी, झूठे बृहत् आकाश है; मिलती नहीं जग में कहीं  प्रतिमा हृदय के गान की। अयि सङ्गिनी सुनसान की !         (२) तुम जानती सब बात हो, दिन हो कि आधी रात हो,  मैं जागता रहता कि कब मंजीर की आहट मिले, मेरे कमल- वन में उदय किस काल पुण्य - प्रभात हो किस लग्न में हो जाय कब  जानें कृपा भगवान की। अयि सङ्गिनी सुनसान की !             (३) मुख में हँसी, मन म्लान है, उजड़े घरों में गान है, जग ने सिखा रक्खा, गरल पीकर सुधा - वर्षण करो, मन में पचा ले आह जो सब से वही बलवान है। उर में पुरातन पीर, मुख  पर द्युति नयी मुसकान की। अयि सङ्गिनी सुनसान की ! १९३९ ई० रामधारी सिंह दिनकर

शेष गान (रसवन्ती से)

सङ्गिनि, जी भर गा न सका मैं।                 (१) गायन एक व्याज इस मन का, मूल ध्येय दर्शन जीवन का, रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।          (२) इन गीतों में रश्मि अरुण है, बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है,  बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।            (३) बँधे सिमट कुछ भाव प्रणय के, कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के,  पर, इन से जो परे तत्व वर्गों में उसे बिठा न सका मैं।          (४) घूम चुकी कल्पना गगन में, विजन विपिन, नन्दन - कानन में, अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं ।           (५) गाता गीत विजय - मद - माता,  मैं अपने तक पहुँच न पाता, स्मृति - पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।          (६) परिधि - परिधि मैं घूम रहा हूँ  गन्ध - मात्र से झूम रहा हूँ, जो अपीत रस - पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं ।            ...

खिलेंगे किस दिन मेरे फूल ? (सामधेनी से)

अचेतन मृत्ति, अचेतन शिला।                            (१) रुक्ष दोनों के बाह्य स्वरूप,  दृश्य पट दोनों के श्रीहीन;  देखते एक तुम्हीं वह रूप  जो कि दोनों में व्याप्त, विलीन,                   ब्रह्म में जीव, वारि में बूँद,                   जलद में जैसे अगणित चित्र ।                       (२) ग्रहण करती निज सत्य - स्वरूप  तुम्हारे स्पर्श मात्र से धूल,  कभी बन जाती घट साकार,  कभी रंजित, सुवासमय फूल ।  और यह शिला - खण्ड निर्जीव,  शाप से पाता- सा उद्धार,  शिल्पि, हो जाता पाकर स्पर्श  एक पल में प्रतिमा साकार ।               तुम्हारी साँसों का यह खेल,                जलद में बनते अगणित चित्र ।                 ...

निमन्त्रण (सामधेनी से)

तिमिर में स्वर के बाले दीप आज फिर आता है कोई। 'हवा में कब तक ठहरी हुई  रहेगी जलती हुई मशाल ?  थकी तेरी मुट्ठी यदि वीर,  सकेगा इसको कौन सँभाल ?'  अनल - गिरि पर से मुझे पुकार राग यह गाता है कोई । हलाहल का दुर्जय विस्फोट,  भरा अङ्गारों से तूफ़ान,  दहकता - जलता हुआ खगोल, कड़कता हुआ दीप्त अभिमान ।  निकट ही कहीं प्रलय का स्वप्न मुझे दिखलाता है कोई। सुलगती नहीं यज्ञ की आग, दिशा धूमिल, यजमान अधीर ;  पुरोधा कवि कोई है यहाँ ? देश को दे ज्वाला के तीर । धुओं में किसी वह्नि का आज निमन्त्रण लाता है कोई । १९४४ ई० रामधारी सिंह दिनकर

आशा का दीपक (सीमाधेनी से)

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;  थक कर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।                     (१) चिनगारी बन गयी लहू की बूँद गिरी जो पग से ; चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण - चिह्न जगमग - से।  शुरू हुई आराध्य - भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही ; और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग- से ?  बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;  थककर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है ।                     (२) अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,  सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का ।  एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;  वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।  आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है ;  थक कर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है ।                         (३) दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य - प्रकाश तुम्हारा,  लिखा जा चुका अनल - अक्षरों में इ...

अन्तिम मनुष्य (सामधेनी से)

सारी दुनिया उजड़ चुकी है, गुज़र चुका है मेला ; ऊपर है बीमार सूर्य, नीचे मैं मनुज अकेला ।  बाल - उमङ्गों से देखा था मनु ने जिसे उभरते,  आज देखना मुझे बदा था उसी सृष्टि को मरते। वृद्ध सूर्य की आँखों पर माँड़ी - सी चढ़ी हुई है,  दम तोड़ती हुई बुढ़िया - सी दुनिया पड़ी हुई है।  कहीं नहीं गढ़, ग्राम, बगीचों का है शेष नमूना,  चारों ओर महा मरघट है, सब है सूना - सूना । क़ौमों के कङ्काल झुण्ड के झुण्ड, अनेक पड़े हैं ; ठौर - ठौर पर जीव - जन्तु के अस्थि- पुंज बिखरे हैं।  घर में सारे गृही गये मर, पथ में सारे राही,  रण के रोगी जूझ मरे खेतों में सभी सिपाही । कहीं आग से, कहीं महामारी से, कहीं कलह से,  ग़रज़ कि पूरी उजड़ चुकी है दुनिया सभी तरह से।  अब तो कहीं नहीं जीवन की आहट भी आती है;  हवा दमे की मारी कुछ चल कर ही थक जाती है। किरण सूर्य की क्षीण हुई जाती है : बस, दो पल में,  दुनिया की आखिरी रात छा जायेगी भूतल में ।  कोटि - कोटि वर्षों का क्रममय जीवन खो जायेगा,  मनु का वंश बुझेगा, अन्तिम मानव सो जायेगा। आह सूर्य ! हम तुम जुड़वें थे निकले स...

महाराणा प्रताप

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चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को। राणा प्रताप सिर काट काट, करता था सफल जवानी को।। कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को। तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को।। वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी। था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी।। पैदल, हयदल, गजदल में, छप छप करती वह निकल गई। क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर, देखो चम-चम वह निकल गई।। क्षण इधर गई क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई। था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई।। लहराती थी सिर काट काट, बलखाती थी भू पाट पाट। बिखराती अवयव बाट बाट, तनती थी लोहू चाट चाट।। क्षण भीषण हलचल मचा मचा, राणा कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने को यह, रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी।। ✍️✍️✍️✍️ अज्ञात

मंगल पांडे

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रक्त  चंदन  जिससे  अभिषेक  चढ़ा प्रथम गूंज थी  यह  अवशेष  किसका शंखनाद किस प्रतीर में  ते  बज उठा रक्तरंजित वो, खिले शिखर जिस ओर मातृत्व चरणों के सौगन्ध छाँव में पला सब थे पर‌‌ तू ही रण द्वंद्व के महासमर में  क्रान्ति प्रदीप्त प्रज्ञा के अटल ज्योति थे थर्र-थर्र रफ्ता-रफ्ता ही फिरंगी हुए संहृत ✍️✍️✍️✍️✍️ वरुण सिंह गौतम

सुभाषचन्द्र बोस चालीसा

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भारत मां के पूत है, ऐसे वीर सुभाष। तनमनधन सब वारते, जग करता विश्वास।। जय सुभाष तुम मंगलकारी। तुम्ही सांचे  देश  पुजारी।।1 जन जन के नेता कहलाये। आजाद हिन्द फौज बनाये।।2 नेताजी कह सभी पुकारी। सब जन के थे पीड़ा हारी।।3 बल बुद्धि विद्या के सागर। साहस चतुराई  के आगर।।4 अट्ठारह   संताणू  भाया। तेइस जनवरि बालक आया।।5 कटक उड़ीसा खुशियां छाई। जन्में नेता मिली बधाई ।।6 प्रभावति की कोख से आये। पिता जानकी नाथ कहाये।।7 कटक पुरी में शिक्षा पाई। कलकत्ता कालेज पढ़ाई।।8 ऊंची तालिम गये विलायत। तन से बाहर मन से आयत।।9 आई एस पास  परीक्षा। सन उन्निस मे लीनी दिक्षा।।10 छोड़ नौकरी सन इक्कीसा। आये भारत देखी पीड़ा।।11 चित्तारंजन गुरू बनाये। राजनीति सब उनसे पाये।।12 जलियां वाला बाग संहारा। सुनकर दिल में लगा करारा।।13 बड़ अधिकारी रास बिहारी। नवयुवकों की फौज संवारी।।14 हिटलर ने साहस सिखलाया। लोहा से लोहा टकराया ।।15 स्वतंत्र मांग उन्निसा तीसा। जेल रिहाई सन इकतीसा।।16 फिर अंग्रेज कैद कराये। जेल कूद के जर्मन धाये।।17 जापानी को अपना कीना। भारत हेतू जीवन दीना।।18 आस्ट्रिय...

सुमित्रानंदन पंत चालीसा

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    (जन्म दिवस पर विशेष) छायावादी कवि भये, सुमित्रानंदन पंत। प्रकृति के सुकुमार कवी,जीवन कविता संत।। सुमित्रानंदन पंत कुमारा। छायावादी कवि की धारा।।1 मई बीस सन सौ उन्नीसा। सुंदर गोरे भये इक्किसा।।2 गंगा दत घर बेटा आया। दत्त गुसाईं नाम धराया।।3 छै घंटे में मातु पयाना। फिर दादी का गोद खिलाना।4 ऊपर का पय दूध पिलाया। रोग दोष से खूब बचाया।।5 बाल पने से पितु ने पाले। भोजन पानी के भी लाले।।6 सौम्य चेहरा चश्मेवाले। केश तुम्हारे है घुंघराले।।7 कर्ज बोझ से पिता दुखारे। बेची खेती अरु घर द्वारे।।8 उन्निस सौ दस शुभदिन आई। हाय स्कूल सफलता पाई।।9 अल्मोड़ा से किया पयाना। शिक्षा हेतू काशी आना।।10 क्वींस कालेज नाम लिखाये। परीक्षा पास अव्वल आये।।11 फिर आगे की करी पढ़ाई। छोड़ बनारस प्रयाग आई।।12 गांधी जी के बन अनुयाई। असहयोग में कूदे भाई।।13 क्योर कालेज बाद इलाहा। त्याग पढ़ाई कीना स्वाहा।।14 हिन्दी संस्कृत बंगला भाषा। अंगरेजी भी लिखते खासा।।15 उच्छवास कविता की धारा। पहला संग्रह लिखा विचारा।।16 सन छब्बिस में पल्लव आया। जन की आह विचार समाया।।17 सन इकतीस में गढ़ प्रतापा। गांधी के संग हो...

मैथिलीशरण गुप्त चालीसा

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राष्ट्र कवी की साधना, नारी का सम्मान। शरणमैथली नमन करुं,कहत है कवि मसान।। जय जय प्यारे मैथिल भाई। रचना लिखते  देश हिताई।।1 शरण मैथिली नाम तिहारा। आपन जस गावत संसारा।।2 अगस्त त्रय छैयासी आई। हिन्दी साधक जन्में भाई।।3 शुक्ला द्वितिया सावन मासी। चिरागांव है मंडल झांसी।।4 रामचरण थे पिता तुम्हारे। राम भक्ति में समय गुजारे।।5 विनय भाव बचपन से पाई। जो लेखन में पड़त दिखाई।।6 गुरु अजमेरी मुंशी प्यारे। जो कविता के थे भंडारे।।7 बंगला संस्कृत घर में पाई। छोड़ पढ़ाई खेल बिताई।।8 बारह वय में कविता गाई। कनकलता बन पहली आई।।9 दोहा छप्पय अरु चौपाई।। ब्रज भाषा में नाम कमाई।।10 महावीर से भई मिताई। ब्रज को छोड़ खड़ी अपनाई।।11 घासीरामा सखा तुम्हारे। पावन नैतिक सद् व्यवहारे।।12 राम काव्य के लेखन हारे। दद्दा कहके तुम्हें पुकारे।।13 रंग में भंग पहले आया। जयद्रथ वध साहित्य छाया।।14 अभिमन्यू की लिखी कहानी। धोखा छल से मार गिरानी।।15 पंचवटी खंड काव्य रचाया। रामलखन सिय का गुण गाया।16 वन उपवन का हाल सुनाया। नद पर्वत का दृश्य दिखाया।।17 हरि गीतिका छंद है प्यारे। जो रचना को सदा उभारें।।18 अबला जीवन हाय...

कुँअर बेचैन की रचना

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घिरा रहता  हूँ मैं  भी   आजकल   अनगिन विचारों  में कि  जैसे इक  अकेला  आसमाँ    लाखों   सितारों   में पता क्या था  कि अपना  कोई इक  पागल पड़ोसी  ही बिछा    जाएगा   बारूद    और   अंगारे   बहारों     में हम अब लफ़्ज़ों  से  बाहर हैं, हमें मत   ढूंढिये  साहब हमारी बात  होती  है,    खमोशी   से,     इशारों      में चमन  में  तितलियाँ हों  या  कि भँवरे,  रहना पड़ता है कभी  फूलों,  कभी  तीखे   नुकीले  तेज़    खारों     में मुहब्बत की दुल्हन डोली में  बैठी  ही थी सज-धज कर कि फिर होने    लगी साज़िश  उधर  बैठे  कहारों     में कुछ  ऐसे    खेल  भी  हैं   बीच   में  ...

कौन चाहता कठपुतली बनना

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जीवन एक अमुल्य रत्न है, जो न मिलती कभी दोबारा है, इस जीवन को जीने दो, स्वतंत्रता की दुनिया में, मत बनाओ कठपुतली किसी को। कौन चाहता कठपुतली बनना, कठपुतली तो परतंत्रता का प्रतीक है, इस धरा के सभी प्राणी, उनमुक्त रहना चाहते है। मत बनाओ कठपुतली, किसी भी प्राणवान को, सभी को स्वामित्व है , स्वतंत्र जीवन जीने का। एक बार तू सोच के देख, जब हुआ करते थे, अंग्रेजों के कठपुतली हम, तब हमें कितना यातना झेलकर भी, न मिलती स्वतंत्रता थी, वो खौफनाक दिन याद आते ही, कापने लगती है आत्मा हमारी। लेखक : - उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

तिरंगा

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हमारा प्यारा ध्वज हैतिरंगा, भारत की शान है तिरंगा, भारत की पहचान है तिरंगा, हमारा सम्मान है तिरंगा। वीरों ने अपने प्राणों को दाव लगाकर, बचाया ध्वज का सम्मान, वक्त आने पर ध्वज के खातिर न्योछावर कर दी अपने प्राण, हमारा प्यारा ध्वज है तिरंगा। भारत का उल्लेख करती है तिरंगा, केसरिया रंग से साहस और बलिदान का, स्वेत रंग से सच्चाई और शांति का, हरा रंग से धरती की हरियाली का, चक्र से सम्राट अशोक की महानता का, हमारा प्यारा ध्वज है तिरंगा। ध्वज का सम्मान बचाना ही, पहला कर्तव्य है हर नागरिक का, इस ध्वज के सम्मान हेतु, न्योछावर कर देंगे अपने प्राण, हमारा प्यारा ध्वज है तिरंगा।।  लेखक : - उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

मातृभाषा

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हमारी मातृभाषा है हिन्दी, हमारी जन्म बोली है हिन्दी, हिन्दी को बुलंदी तक पहुंचाना ही, प्रथम कर्तव्य है हमारा। विद्वानों की देन है हिन्दी, भारत में ज्यादातर बोली जाती है हिन्दी, हमारी पहचान है हिन्दी, संस्कृत से ही बनाया गया है हिन्दी। मातृभाषा का सम्मान चाहते हो तो, गैर भाषाओं का भी सम्मान करो, किसी की मातृभाषा का सम्मान करने से, बढ़ती स्वयं की मातृभाषा का सम्मान है। भारत को स्वतंत्रता दिलाने में, गांधी जैसे विद्वानों ने भी, जिस भाषा का सदुपयोग किया, वह अनोखी भाषा है हिन्दी। गर्व है हमें अपने देश पर, जहां की मातृभाषा है हिन्दी, हिन्दी को जो समझता सरल, वह पछताता है जिंदगी भर, हिंदी है एक कठिन समस्या, इस को अर्जित करने वाला, बनाता अपना उज्जवल भविष्य। मातृभाषा का सम्मान चाहते हो तो, गैर भाषाओं को सम्मान देना सीखो।। लेखक : - उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ईमानदारी

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बेईमानी से अर्जित करते, अमीर लोग काला धन, पर ईमानदारी से अर्जित करते, गरीब लोग सफेद धन। जग में अमीर बनने से ना सम्प्राप्ति आबरू है जग में ईमानदार बनने से ही सम्प्राप्ति हमें आबरू है। जीवन में बेईमान व्यक्ति, धरा पर ना रहता ज्यादती दिवा , जीवन में ईमानदार व्यक्ति ही, धरा पर रहता ज्यादती दिवा है। जग में ईमानदार जन ही, जीता चैन की जिंदगी है, जग में बेईमान जन, ना जीता चैन की जिंदगी है। चैन व सुख की जिंदगी जीना है तो, ईमानदार हमें बनना होगा। नाम – उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

परशुराम कर्ण संवाद

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राजवंशी  सूर्य अंगज कर्ण कुंती अंगज होकर भी राधा को धात्री बतलाते हो सुत अंगज कहलाते हो। तू अश्रद्धालु,जलीय, कपटी ब्राह्मण का बाना धारण कर  दग से खर बनाकर हमको आयुद्य  विद्या पाते हो। कब तक खर बनाओगे स्वर्ग में नहीं,नरक में जाओगे तुमसे न्यून बलशाली भी तुझको शिकस्त दे जाएगा। इस मूढ़ता का तुम्हें सकल कर्ज चुकाना होगा एक दिवा इसी सबब तू शर - शय्या पर मृत पड़ा होगा। परशुराम का श्राप था कर्ण को कि जीवन की सर्वोत्तम बड़ी संग्राम में दगा से प्राप्त विद्या भूल जाएगा तू रण में तेरे रथ का पहिया धरती में अर्द्ध धस जाएगा। परशुराम रोष में आकर दिया कर्ण को श्राप इस  श्राप को भुगत सर्वोत्तम बड़ा रण हारा वो। परशुराम की सत्यता का अतीत के पन्नों में विख्यात है पलट कर देखो महाभारत को अर्जुन से कर्ण रण में हारा था। लेखक : - उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

अपने मंजिल को पाऊँगा मैं

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एक निराट भरी पंथ में  कॉंटे पुरोध थे हजार  इस पंथ पर चलकर ही  वेदना हजारों सहकर भी  अपने मंजिल को पाऊँगा मैं। क्या हुआ मंजिल ना मिला? अघाकर विराजने वाला नहीं मैं  एक नहीं शतक बार यत्न करुँगा  दिलोजान मशक्कत कर भी  अपने मंजिल को पाऊँगा मैं। पंथ में भटकाने वाले  प्रचुर लोक अभिरेंगे हमें  पर मैं भटकने वाला नहीं  अपनी कामना का अंत कर भी  अपने मंजिल को पाऊँगा मैं। मुश्किलें बहुत आएंगे राह में  पर डटकर सामना करेंगे हम  मुश्किलें दूर करने में  एक से एक प्रयास कर भी  अपनी मंजिल को पाऊँगा मैं। मंजिल की मनोरथ हमें  चक्षुविहीन बना देती है  पगों तले रूधिर गेरते पर रूधिर की कुर्बानी देकर भी  अपने मंजिल को पाऊँगा मैं। लेखक : - उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

महिला

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हमारी जन्मदाता है वह, सृष्टि की रचनाकार है वह, जीवन भर साथ निभाती है वह, वह एक महिला ही है। अपनी चंचल भरी मन से, जग में चंचलता लाती है वह, अपने अतीत को सुधार कर, भविष्य सुनिश्चित करती है वह, वह एक महिला ही है। सभी सफल व्यक्ति के पीछे, होता महिला का हाथ है, महिला के बिना ना किसी को, मिल ना सका है मिल ना सकेगा, मिल ना सकती सफलता है। देश की रक्षा को , महिलाओं ने भी निःसंकोच, अपने प्राणों की आहुति दी, हमारी इच्छा की पूर्ति को, अपनी इच्छा की कुर्बानी देती वह वह एक महिला ही है। नाम-उत्सव कुमार वत्स जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

स्वयंरचित आर्टिकल :-बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था में सुधार

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भारत में शिक्षा व्यवस्था को लेकर अभी बहुत हालात गंभीर है इसका कारण है शिक्षकों की बहाली को लेकर। शिक्षा व्यवस्था को लेकर भविष्य में आने वाले नौजवानों के लिए संकट हो रहा है क्योंकि दसवीं और बारहवीं के मार्कसीट के आधार पर शिक्षक की बहाली करना चूंकि अभी परीक्षा में ढ़िलाई के कारण नौजवान की मार्कसीट अच्छी होती है फिर भी उनके पास पहले वाले शिक्षकों से पढ़ाने के मामले में बहुत कम अनुभव होता है। सरकार को पहले वाले शिक्षकों की बहाली अलग से करनी चाहिए इससे हमारे आने वाली पीढ़ी में  ज्ञान की अत्यधिक वृद्धि होगी और हमारा देश शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से बुलंदियों को छुएंगा।सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की हालात बहुत खराब है जिससे हमारे देश के विकास की गतिविधियों में स्थिरता छा जाती है। सरकार को सरकारी विद्यालयों में सख्त कानून का ऐलान करना चाहिए जिससे सरकारी विद्यालयों के बच्चे तथा शिक्षक दोनों  उस कानूनी व्यवस्था में बंध जाए और शिक्षा व्यवस्था को लेकर देश बुलंदियों की  ऊँचाईयों को छुएं और तरक्की करें। सरकार को शिक्षा व्यवस्था को लेकर निम्नलिखित नियम हैं और इसका पालन करना जा...

फास्ट फूड

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फास्ट फूड के प्रसारण ने  स्थानीय व्यंजन को मिटाया है  जिससे होती क्षय हमें  फिर भी ललक उन्ही की है  उसी को कहते हैं फास्ट फूड। खट्टा,मीठा,नमकीन,तीत से  लोगों का मानस ललचाता है  मनोरथ कर भी अपनी जीवा पर  ना नियंत्रण हो लहता है  उसी को कहते हैं फास्ट फूड। एक नव्य सूत्रपात हुई  संस्कृतियों का अतीत मिटा   इस जगत का झॉंकी बदला  पिज़्ज़ा, बर्गर आदि का सूत्रपात हुआ  उसी को कहते हैं फास्ट फूड। अभी न होगा इसका अंत  अभी अभी तो प्रचार हुआ  अपने चटपटा स्वाद से  लोगों का दिल जीत लिया  उसी को कहते हैं फास्ट फूड। जिस आहार को खाने से  स्वास्थ्य संबंधी बीमारियां बढ़ती  रोगग्रस्त के अहेर होते  बच्चे , बूढ़े और जवान  उसी को कहते हैं फास्ट फूड। मत खाओ फास्ट फूड को  इससे होते हम बीमार  पैसा तो जाता हमारा  और स्वास्थ्य भी बिगड़ता। मिलकर सभी प्रतिज्ञा ले निपट मात्रा में फास्ट फूड  ना खाऍंगे ना खाने देंगे  फास्ट फूड के समर्थक की  मोक्ष में विराम लगाएँगे। लेखक : - उ...

शांत वातावरण

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जब रहता शांत वातावरण मन रहता अहरणीय सदा किसी भी विद्याम्यासों को कम पढ़े फिर रहता याद शांत वातावरण ही हमको सिखाता शांत रहना‌ हमें । हमे किसी बात का फैसला गुस्से,‌ प्रतिघात, आक्रोश में कभी न ले अद्ल किसी का शांत वातावरण में बैठ कर सोच -समझकर ले फैसला सौम्य ही मानुजों की स्मृति । हमें सदा रहना चाहिए संवेगहीन धीर दिल में करता हरि निवास शांत में लिया गया हर फैसला क्रोध, आक्रोस वाला अद्ल से होता लाख गुना उत्कर्ष , उत्तम प्रभंजन ही हम सब की निशानी । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ज़िंदगी का हीरो

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इस अनमोल सी जिंदगी में वेदना का आना है विवेचित इसका जो डटकर किया टंटा वह आज उच्चशिखर पे बैठा । यातना इस हयात में एक नहीं, हजार – लाख, आएंगे – जाएंगे जो जितनी क्लेश झेलते आज वह उतने ही कामयाब हो पाते। ईश्वर की प्रतिभा सु’ऊबत तकलीफों से सीखते प्रभूत ठोकरें खा – खा कर भी हम जानते कौन अपना – पराया। सुख – दुख और यंत्राणों से भरी हुई है अनमोल हयात जो दुखो, पीड़ा को खुशी से गुजारे वही ज़िंदगी का हीरो । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

अशक्त परिंदा

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मैं एक सहृदय, अनभिज्ञ तन्वी, कृशांगी सा परिंदा फस गया बंदी आलय मे कैसे बचू ? कैसे निकलू ? दुर्गति भारी इस कैद से। मै एक बालसुलभ सा अल्पवयस्क ही परिंदा किसी ने हम पे कर जादू खंडन रहता हमसे कृत्य क्या करू ? कैसे बचू ? मैं एक मृदुल – मार्मिक दैनय, कृपालु सा परिंदा क्रश गया इस चहला में निकालने का पंथ हमें दिखता हमें न दूर – दूर । मैं एक नाबालिग सा अल्पागुलफ़ाम परिंदा बंध गया साँकल से टूट न रही ये कटके ! क्या करू ? कैसे टोरू ? मैं एक तनु, कृशांगी अशक्त सा परिंदा मेरी लब्ध का कोई उठता रहता अधिगम दूर तक न दिखता पंथ । ✍️✍️✍️ अमरेश कुमार वर्मा

आदतें

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अच्छी-बुरी आदत होती हम सबों के अभ्यंतर में उत्तम प्रवृत्ति अपना कर, अधम लत को करे त्याग। अच्छी व्यसन ही हमें ले जाती है बुलंदी पर निकृष्ट लत हमसबों को करती निज स्तब्ध हयात‌ । उम्दा – अनिष्ट प्रवृत्ति को उत्सर्ग में ही हम सबों को लगता कुछ दिन की वक्त सदा अपनाये उत्तम लत। वैज्ञानिकों को माने तो हमे किसी भी प्रवृत्ति भुलने‌ में इक्कीस दिवा लगता वक्त निकृष्ट आदतों को भुलने में । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

जग

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आये हो तो इस भव में कुछ करके ही जाओ यूं ही लाखों नर जग में आते तो जाते – रहते । कुछ खास न करने से कौन करेगा सँवर हमें ? लाखों मनुज की भांति विस्मृत कर देगी संसार। इस जग का खेल देखो धनीवान हो रहे समृद्ध धनमंद की माया देखो दिन -रात हो रहे है रंक। किसी ने सार ही कहा है रंक उद्भव होना न गुनाह रंक ही परलोक में व्रजना यह है बिल्कुल ही गुनाह । ये भव का खेल अनोखा चलता रहता न एक जैसा वक्त वक्त की बात है बस वक्त ना रहता एक जैसा । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

नई जिंदगानी

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भाग दौड़ की इस हयात में कभी न अख्तियार करे हम जीने के लिए त्रुटिपूर्ण प्रचर अक्सर आसान पंथ ही हमें करती नष्ट हयात स्वजन की । दो लम्हें की खुशी के लिए कभी न करना चाहिए हमें अपने इस हयात को ध्वस्त आज उद्यम कर के हम सब अग्र हयात में रह सकते-भला । ये दो दिन की जिंदगी को हर्षोल्लास से बिताने को करते श्रम, उद्यम, परिश्रम प्रतिस्पर्धा के बाद ही हमें मिलती एक नई जिंदगानी । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

नियमित दिनचर्या

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हमारी इस जिंदगी को जीने के लिए हमें सदा चाहिए सौम्य दिनचर्या नियमित दिनचर्या से ही होती हमारी उत्तम लत । हमारी सौम्य हयात को जीने के लिए हमें सदा जरूरत पड़ती दुरुस्त, उत्तम सौम्य दैनंदिनी की पड़ती रहती है गरज हमें । अच्छी दैनंदिनी से ही बनती भव्य अभिरुचि इन से बनते उमदा नर सौम्य नर की होता प्रतिष्ठा दैनिकी अच्छी रखे हमेशा। निकृष्ट वार्ता को हमेशा करने से हम सबों को हयात हो जाती बर्बाद उत्तम आदत ही अपनाए जिनसे जीवन में संपन्नता । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ईमानदारी

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ईमानदारी सबसे बड़ी इन से से बड़ा न कोय जो करता कभी न चक्र उनके जैसा कोई नहीं। हम पथिक ईमानदारी के निरंतर आगे बढ़ते जाते जिनसे मिलता हमसबों को दुनिया में आदर – सत्कार । प्रतारणा करके हम कभी न रह सकते कभी उत्तम हमें निष्कपट के पंथ पर निरंतर आगे- बढ़ना होगा। जो अपनाते सत्यनिष्ठ का पथ वो अंधेरगर्दी की ओर मुड़ते न स्पर्धा करके वह हमेशा से ही जी रहे वो अपनी संपन्न हयात । निकृष्ट वक्त में हमें कभी भी बिल्कुल न अकुलाना चाहिए मंद वक्त में ही हम सबों को होती है अपनों की पहचान । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

लोभ

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आज लोभ का जमाना पदार्पण कर चुका कब ! कांक्षा के कारण ही हमें करता कोई हमें अवलंब । आज के इस जहान में तृषा की संख्या बढ़ गई अपनी हद के लिए हम कर देते क्षति किसी की। आज निरंतर मानुष अब धन – दौलतो के ही चलते हो रहे लिप्सा मौकापरस्त सदा रहे इनसे पृथक हम । आज मानव कई चीजों धन- दौलत, भोग-विलास सबके लिए करते स्पृह कभी भी न करें तृष्णालु । आज देखो लोगों का खेल श्रम करना न चाहता कोय फरेब करके के वो हमेशा करता रहता धन को अर्जित । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

वक्त

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वक्त वक्त की बात जग में कभी दुःख तो कभी खुश कभी कोई गरीब तो अमीर बदलते रहता वक्त सर्वथा । वक्त वक्त का खेल है आज जो करता जितना परिश्रम उसको मिलता उतना फल ये वक्त हमेशा बदलते रहता । मुद्दत कभी भी आपका रहता है निकृष्ट तो कभी न होना चाहिए तटस्थ हमें वक्त बदलते रहता हमेशा । अधम वक्त से हमें कभी भी विचलित, अधीर न होना है, हेय वक्त में ही हम सबों को होती अपनों की पहचान है। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

माहौल

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जिनका जैसा होता माहौल लोग वैसे बन जाते जग में हमारे इस जीवन में उत्तम माहौल का होना अनुपेक्ष्य । जैसा परिवेश में रहते हम अच्छा- बुरा कैसा भी हो ! परिस्थितियों के सम हम वैसे ही ढल जाते भव में। अगर किसी कारण वश हमें रहना पड़े निकृष्ट पड़ाव में उस मुकाम से सहेजना हमें तब बदलेगी हमारी ये हयात । ठाँव ही हमारे हर सिद्धि , पूर्णता होती है अडिग निशनी खलक में अगर ठाँव, ठौर हमारा रहे उत्तम तब हम उत्कृष्ट मनुज ही बनेंगे। अच्छा – बुरा इंसान हम बन जाते इसमें न होती हमारी कोई गलती जैसे परिस्थितियां ढालता है हमें वैसे ही ढल गए हम इस भव में । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

घड़ी

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ये घड़ी हर हमेशा हमको देती रहती समय का ज्ञान ये टिक टिक करती रहती दिन हो या रात, हर पल। आज -काल के लोग सब करते घड़ी देखकर काम यथार्थ बताए तो ये हमारे होते एक अच्छे मित्र घड़ी। घड़ी हमेशा चलती रहती यह हमें यह बताती सदा जीवन में कभी न रुकना सदा निरंतर बढ़ते रहना। घड़ी हमे बहुत योग्य बनाती इस संघर्ष पूर्ण इस हयात में वक्त -वक्त की महत्व भव में समझती रहती यह घड़ी हमे। घड़ी अगर न होती जगत में हमारे इस जिंदगी में यहां पे समय का लगाते रहते कयास घड़ी का महत्व अनोखा यहां । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

पराधीन पक्षी की सोच

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पराधीन जब होती पक्षी केज में हमेशा रहती कैद खलक की सैर करना भी चाहती रहती हर पल वो। पराधीनता की दास्ता में बंधी रहती हर वक्त यह उसकी भी मत करती है द्रुम पर झूले- झुलने के। क्या करेगी पराधीन पक्षी ? इसके भी पंख हर लम्हें में नभ में उड़ान भरने के लिए रहती होंगी कितनी व्याकुल। कभी भी इनकी खुशियों को दास्ता में बाँधकर न हम तोड़ें इसके भी अरमान होते होंगे आसमान की ऊंचाई छूने की। इस पराधीन पक्षी को हम दासता से करके मुक्त हम खुली हवा में इन्हें भी हम फिर से जीने प्रभुत्व दे हम । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

मेहनत

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मेहनत हर हालिया में हमें करते रहना ही इस भव में कर्मठता के बाद ही हमें मिलती सिद्धि -सफलता । आज जो करता रियाज़त उसका फल उसे हमेशा मिलती है जरूर जहां में श्रम करे हमेशा हम सब । आज कल के इस दौड़ में जो न करता मेहनत आज वही सब ठलुआ मनुज ही आगे जाके प्रचुर पछताता । जो मेहनत से रहता परे उसी काहिल, शिथिल, कमबख्त की वजह से होता न उज्जवल कल । आज जो पढ़ाई- लिखाई श्रम, मेहनत का दीवाना कल के समय में दुनिया उसकी हो जाएगी दीवानी । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

मातृभाषा हिंदी

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मातृभाषा हमारी है हिंदी सदा करे इनका सम्मान इक्कीस फरवरी को हम मनाते मातृभाषा दिवस। भले दूसरे भाषा में हम सब कितना भी हो जाए निपुण अपनी मातृभाषा हिंदी को कभी न करेगे इनका त्याग। अपनी मातृभाषा हिंदी को मनाते हर वर्ष इसलिए हम स्वभाषा की ओर हो सजग हर पल करें इनका सम्मान। जो जो अपनी मातृभाषा हिंदी का करेगा अपमान उसके विरुद्ध हम – सब शक्त से शक्त लेंगे नालिश। हिंदी भाषा हम सबों को जन्मों से सिखायी जाती है यही भाषा हम सबों के कण कण में बसी होती है। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

धन-दौलत

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आज मनुष्य भूखा, अशना इस स्वर्ण, धन दौलतो का इन्हीं कंचन के लिए ही नर आपस में करता मार-काट। आज मनुष्यों की पहचान होती ना निज पहचानो से धन दौलत से आज नर की होती मनुज की छाप भू पर। आज जिस जिस के पास होते हैं बिल्कुल अल्प धन उसको समाज में ना होती धनवानों के सामान आबरू। आज-कल के यातना में धन- दौलत ही सब कुछ मनुष्य की होती ख्याति अतः गौरकर करे प्रयोग। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

पढ़ाई – लिखाई

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पढ़ाई – लिखाई की अपेक्षित पड़ती है हर एक मनुष्य को पढ़ाई- लिखाई हम सबों को पहुंचाते गम्य, गंतव्य पर हमे । पढ़ाई- लिखाई की दौड़ में आज जो अनपढ़ रह गया वह अपने इस जिंदगी में खाते फिरेंगे समाघट, ठेस । पढ़ाई-लिखाई के बिन आज चपरासी की भी नौकरी हमें कभी भी ना मिल सकती है इसके मांगती अनुपेक्ष्य ज्ञान । पढ़ाई लिखाई आज जो करता उसका आने वाला कल हमेशा करता रहता जगमग खुशियों से पढ़ाई -लिखाई जीवन की उम्मीद । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

राष्ट्रकवि_रामधारी_सिंह_दिनकर के जीवन का अनुभव और उनके काव्य दास्तां

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मैंने जब कविता लिखना आरम्भ किया, उस समय छायावाद अपने परिपाक के पास पहुँच चुका था और साहित्य में समीक्षा की भारतीय शैली के साथ उसकी पाश्चात्य शैली का भी प्रचलन होने लगा था। प्रत्युत्, कहना चाहिए कि रस और अलङ्कार-शास्त्र पर अवलम्बित रहने की बात तब तक ढीली पड़ने लगी थी और कविगण अधिकाधिक पाश्चात्य समीक्षा के सिद्धान्त से प्रभाव ग्रहण करने लगे थे। कला का प्रत्येक नया आन्दोलन कला-सम्बन्धी धारणाओं में परिवर्तन उपस्थित करता है और साहित्य में जब भी नये कवियों का उत्थान होता है तब उनके पीछे आनेवाली आलोचना भी नवीन हो उठती है। छायावाद के आविर्भाव के पूर्व हिन्दी में आलोचना की जो परिपाटी थी, छायावाद के आगमन के बाद वह बदलने लगी और कविताओं का अध्ययन उस पद्धति से किया जाने लगा जो पाश्चात्य आलोचना की पद्धति थी। वैसे तो पाश्चात्य समीक्षा पद्धतियों की चर्चा हिन्दी में द्विवेदी-युग में अथवा उससे कुछ पूर्व ही आरम्भ हो गयी थी, किन्तु, जिसे, सचमुच साथ होना कहते हैं, उस अर्थ में पाश्चात्य आलोचना द्विवेदी-युग के बाद ही हिन्दी कविता के साथ हुई। इसी प्रकार, जो कविता द्विवेदी-युग के बाद प्रचलित हुई, व...