संदेश

मजबूर

हर कोई कायर नहीं होता है । न  परिस्थितियो से भागता है ।। कभी मेहनत से काम नही होता है । आदमी नियती के हाथो भी मजबूर होता है ।। माना मेहनत से बहुत कुछ बदलता है । पर कभी किस्मत का सिक्का भी चलता है ।। परिश्रम किस्मत की कश्ती से ही पार होता है । आदमी नियती के हाथों भी मजबूर होता है ।। लाख कमाओ पर लक्ष्मी नहीं टिकती । बहुत मेहनत से भी कभी मन्जिल नहीं मिलती ।। ऐडी चोंटी का जोर भी कभी कम लगता है । आदमी नियती के हाथों भी मजबूर होता है।  कृष्ण काली रात मे जन्म लेकर आए । श्रीराम भी अपने वनवास को न रोक पाए ।। नियती के आगे ईश्वर का भी बस कहाँ चलता है । आदमी नियती के हाथों भी मजबूर होता है ।। विधाता भी विधि के वश मे होता है । मनुष्य के हाथो मे भी बहुत कुछ होता है ।। कर्म हमारे हाथो मे पर कर्मफल विधि हाथों मे है । आदमी नियती के हाथों भी मजबूर होता है।। लेखक :-  एस एन उपाध्याय "बना"

आत्मकथ्य

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मधुप गुन - गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी, मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।  इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास  यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास  तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती। तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे- यह गागर रीती।  किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले- अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।  यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं। भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।  उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।  अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।  मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया। आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।  जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में। अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।  उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की। सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?  छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?  क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ? सुनकर क्या तुम भला कर...

उत्साह

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बादल, गरजो!-  घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!  ललित ललित, काले  घुँघराले  बाल कल्पना  के-से, पाले,  विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!  वज्र छिपा, नूतन कविता  फिर भर दो - बादल, गरजो! विकल विकल, उन्मन   थे उन्मन  विश्व के निदाघ के सकल जन,  आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!  तप्त धरा, जल से फिर  शीतल कर दो-  बादल, गरजा। लेखक:-सूर्यकांत  त्रिपाठी निराला

यह दंतुरित मुसकान

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तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान  मृतक में भी डाल देगी जान धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात... छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात  परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,  पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल बाँस था कि बबूल ? तुम मुझे पाए नहीं पहचान ? देखते ही रहोगे अनिमेष! थक गए हो?  आँख लूँ मैं फेर ? क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?  यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज  मैं न सकता देख मैं न पाता जान तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान  धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य! चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!  इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क  देखते तुम इधर कनखी मार और होतीं जब कि आँखें चार  तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान मुझे लगती बड़ी ही छविमान!                                                                ...

फसल

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एक के नहीं, दो के नहीं, ढेर सारी नदियों के पानी का जादू: एक के नहीं, दो के नहीं, लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा: एक की नहीं, दो की नहीं, हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्मः फसल क्या है? और तो कुछ नहीं है वह नदियों के पानी का जादू है वह हाथों के स्पर्श की महिमा है भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है रूपांतर है सूरज की किरणों का सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का! लेखक :- नागार्जुन

छाया मत छूना

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छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना।  जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी  छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;  तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,  कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।  भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण - छाया मत छूना  मन, होगा दुख दूना।  यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;  जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया ।  प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,  हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।  जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन - छाया मत छूना  मन, होगा दुख दूना।  दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,  देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।  दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,  क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?  जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,  छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना।                                       लेखक:- गिरिजाकुमार माथुर

कन्यादान

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कितना प्रामाणिक था उसका दुख  लड़की को दान में देते वक्त  जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो लड़की अभी सयानी नहीं थी  अभी इतनी भोली सरल थी  कि उसे सुख का आभास तो होता था लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की  कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की माँ ने कहा पानी में झाँककर  अपने चेहरे पर मत रीझना  आग रोटियाँ सेंकने के लिए है  जलने के लिए नहीं  वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह  बंधन हैं स्त्री जीवन के माँ ने कहा लड़की होना  पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।                                             लेखक:- ऋतुराज

कैमरे में बंद अपाहिज

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हम दूरदर्शन पर बोलेंगे हम समर्थ शक्तिवान  हम एक दुर्बल को लाएँगे  एक बंद कमरे में उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?  तो आप क्यों अपाहिज हैं?  आपका अपाहिजपन तो दुख देता होगा देता है? (कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)  हाँ तो बताइए आपका दुख क्या है जल्दी बताइए वह दुख बताइए  बता नहीं पाएगा सोचिए बताइए आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है कैसा यानी कैसा लगता है (हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा?) सोचिए बताइए थोड़ी कोशिश करिए  (यह अवसर खो देंगे?) आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे  इंतजार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का  करते हैं? (यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा) फिर हम परदे पर दिखलाएँगे  फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर बहुत बड़ी तसवीर और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी  (आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे) एक और कोशिश दर्शक धीरज रखिए देखिए हमें दोनों एक संग रुलाने हैं आप और वह दोनों (कैमरा बस करो नहीं हुआ  रहने दो  परदे पर वक्त की कीमत है)  अब मुसकुराएँगे हम आप देख रहे थे सामाजिक...

छोटा मेरा खेत

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छोटा मेरा खेत चौकोना  कागज़ का एक पन्ना,  कोई अंधड़ कहीं से आया क्षण का बीज वहाँ बोया गया। कल्पना के रसायनों को पी  बीज गल गया निःशेष;  शब्द के अंकुर फूटे,  पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष। झूमने लगे फल,  रस अलौकिक,  अमृत धाराएँ फूटतीं  रोपाई क्षण की,  कटाई अनंतता की  लुटते रहने से जरा भी नहीं कम होती। रस का अक्षय पात्र सदा का  छोटा मेरा खेत चौकोना। लेखक :-- उमाशंकर जोशी

बगुलों के पंख

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नभ में पाँती-बँधे बगुलों के पंख,  चुराए लिए जातीं वे मेरी आँखें।  कजरारे बादलों की छाई नभ छाया,  तैरती साँझ की सतेज श्वेत काया।  हौले हौले जाती मुझे बाँध निज माया से।  उसे कोई तनिक रोक रक्खो।  वह तो चुराए लिए जाती मेरी आँखें  नभ में पाँती-बँधी बगुलों की पाँखें।

उषा

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प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका  (अभी गीला पड़ा है) बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से  कि जैसे धुल गई हो स्लेट पर या लाल खड़िया चाक  मल दी हो किसी ने नील जल में या किसी की  गौर झिलमिल देह  जैसे हिल रही हो। और... जादू टूटता है इस उषा का अब  सूर्योदय हो रहा है। लेखक :-- शमशेर बहादुर सिंह

कवितावली (उत्तर कांड से)

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किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,  चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी। पेटको पढ़त, गुन  गढ़त, चढ़त गिरि,  अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।  ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,  पेट ही को पचत,  बेचत बेटा-बेटकी। 'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें, आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।। खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,  बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी । जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई. का करी?' बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअतं,  साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी ।  दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु ! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ।। धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ। काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।  तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।   माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एक न दैबको दोऊ। लेखक :-- तुलसीदास

लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप दोहा

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तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत ।  अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ।।  भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।  मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।। उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ।।अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ ।।  सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ।।  मम हित लागि तजेहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।। सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।। जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु वचन मनतेउँ नहि ओहू।। सुत बित नारि भवन परिवारा। होहि जाहि जग बारहिं बारा।।  अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।। जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।  अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।  जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ।। बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥  अब अपलोकु सोकु सुत तोरा । सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।  निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ।।सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि ...

ईद

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ईद के मुकद्दर खींचते ते तस्वीरों में मानो लगे चार चाँद लगा दो जाना खुशबू-ए-आलम की क्या महफूज! हुस्न-इश्क़-मोहब्बत की ज़वानी लाना  यह कुदरत की फितरत है शब-ए-प्रज्ञा ईद उल-फ़ित्र के अमन-चैतन्य-इता'अत फ़र्ज़ ते करे उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद चले लय नयन के मन का कर ले अर्पण                           -- वरुण सिंह गौतम

परशुराम की प्रतीक्षा

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खण्ड-1 गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे, निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे; गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं, तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं; शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का, शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का; सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को, प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे, (अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।) हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं, शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं। खण्ड-2 हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ? हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ? यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ? दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें। पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है। घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है, जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है। जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है, या किसी लोभ के विवश मूक रहता है, उस क...

संगतकार

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मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती  वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी  वह मुख्य गायक का छोटा भाई है या उसका शिष्य या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार मुख्य गायक की गरज़ में वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से  गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में खो चुका होता है या अपने ही सरगम को लाँघकर चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है  जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन जब वह नौसिखिया था तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ तभी मुख्य गायक को ढाँढ़स बँधाता कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है और यह कि फिर से गाया जा सकता है गाया जा चुका राग और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है  उसे विफलता नहीं  उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।     ...

रामायण संबंधित रचना

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वाच्यस्त्वया मद्वचनात् स राजा-- वहौ विशुद्धामति यत्समक्षम् ।  मां लोकवाद श्रवणादहासी:  श्रुतस्य तत्विव सदृशं कुलस्य ? लक्ष्मण! जरा उस राजा से कह देना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। तिस पर भी लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद सुनकर ही तुमने मुझे छोड़ दिया। क्या यह बात तुम्हारे कुल के अनुरूप है? अथवा क्या यह तुम्हारी विद्वता या महत्ता को शोभा देनेवाली है? सीता का यह संदेश कटु नहीं तो क्या मीठा है? 'राजा' मात्र कहकर उनके पास अपना संदेसा भेजा। यह उक्ति न किसी गँवार स्त्री की; किंतु महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी की-- नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत् स एव धर्मो मनुना प्रणीतः  सीता की धर्मशास्त्रज्ञता का यह प्रमाण, वहीं, आगे चलकर, कुछ ही दूर पर, कवि ने दिया है। सीता-परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत, नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी तक ने–“अस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे" कहकर रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है। अतएव,शकुंतला की तरह, अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली स...

देश प्रेम

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देश-प्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आलंबन क्या है? सारा देश अर्थात मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन पर्वत सहित सारी भूमि। यह प्रेम किस प्रकार का है? यह साहचर्यगत प्रेम है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें बराबर आँखों से देखते हैं, जिनकी बातें बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ रहता है, सारांश यह है कि जिनके सान्निध्य का हमें अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ या राग हो सकता है। देश-प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो यही हो सकता है। यदि यह नहीं है तो वह कोरी बकवास या किसी और भाव के संकेत के लिए गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से सचमुच प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि सबसे प्रेम होगा, वह सबको चाहभरी दृष्टि से देखेगा; वह सबकी सुध करके विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो यह भी आँख भर नहीं देखते कि आम प्रणय-सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपड़ों के ...

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

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फूटे हैं आमों में बौर  भौर वन-वन टूटे हैं।  होली मची ठौर-ठौर,  सभी बंधन छूटे हैं। फागुन के रंग राग,  बाग वन फाग मचा है.  भर गये मोती के झाग,  जनों के मन लूटे हैं। माथे अबीर से लाल,  गाल सेंदुर के देखे, आँखें हुई हैं गुलाल,  गेरू के ढेले कूटे हैं।

मैं लौटूंगी नहीं

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मैं एक जगी हुई स्त्री हूँ मैंने अपनी राह देख ली है अब मैं लौटूंगी नहीं मैंने ज्ञान के बंद दरवाज़े खोल दिए हैं  सोने के गहने तोड़कर फेंक दिए हैं  भाइयो! मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले थी  मैं एक जगी हुई स्त्री हूँ मैंने अपनी हूँ राह देख ली है। अब मैं लौटॅगी नहीं अफ़गानी कवयित्री :-  मीना किश्वर कमाल

पद्माकर की रचना

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कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है। कहै पदमाकर परागन में पौनहू में पातन में पिक में पलासन पगंत है। द्वारे में दिसान में दुनी में देस देसन में देखौ दीपदीपन में दीपत दिगंत है। बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में  बनन में बागन में बगरयौ बसंत है।     

1857 का राष्ट्रगीत

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हम है इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा, पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा। ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा, इसकी रूहानियत से, रौशन है जग सारा; कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा, करती है जरखेज़ जिसे, गंगो-जमन की धारा। ऊपर बर्फ़ीला पर्वत, पहरेदार हमारा, नीचे साहिल पर बजता, सागर का नकारा; इसकी खानें उगल रही, सोना, हीरा, पारा, इसकी शानो शौकत का, दुनिया में जयकारा। आया फ़िरंगी दूर से, ऐसा मन्तर मारा, लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा; आज शहीदों ने है तुमको, अहले वतन पुकारा, तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा। हिन्दू, मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा, ये है आजादी का झन्डा, इसे सलाम हमारा।

हम होंगे कामयाब

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होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास हम होंगे कामयाब एक दिन। हम चलेंगे साथ-साथ डाल हाथों में हाथ हम चलेंगे साथ-साथ, एक दिन मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन। होगी शांति चारों ओर होगी शांति चारों ओर, एक दिन मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास होगी शांति चारों ओर एक दिन। नहीं डर किसी का आज नहीं डर किसी का आज एक दिन मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास नहीं डर किसी का आज एक दिन। लेखक :-  गिरिजा कुमार माथुर

दर्द का अंत

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जब कोई अपना हमें कस्दन पहुंचाता ठेस आखिर उसकी दी हुई दुःख, दर्द या उत्पीड़न एक तरह से वो संताप, दुख देकर भी देता शाद। किसी के वसिले से हमें कोई देता संताप, कलक रंज, क्लेश में तड़पते हुए मुझे देखकर उनका मानस हो जाता होगा सहृदय चंगा ए- गौं से वो हितैषी हमारा। दर्द, पीड़न, दुख, मोहमाया हर एक मानुष, मनुष्य को सबों को झेलनी पड़ती यह इंतकाल के पश्चात ही हमें इन सबों से मिली अपवर्ग सबों का इतिश्री देहावसान । जो हमारे गतिपथ में अक्सर खोदते रहते है अज्ञेय, क्लिष्ट उनके लिए यह सब हमारे अनुरूप से है उनकी बचपना जो खोदते रहते सतत दुश्वारी दर्द की अंतिम उपचार है मृत्यु । लेखक:- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

माटी

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प्रकृति का एक संरचना है माटी, पृथ्वी पर जीवन जीने का, एक निराला नींव है माटी, चित्रकला का एक संरचना है माटी। इस पृथ्वी पर हुए, सभी युद्धों का दृढ़ता है माटी, अपने ही लोगों का, रुधिर आनाकानी देखा है माटी। सभी माटी अवलोकन में, एक सजातीय अवलोकन है, लेकिन सबको न संप्राप्ति, कलित ढांचा  का संरचना है, जो माटी कलित ढांचा लहने में, अनेक संताप झेलता है, उसे ही संप्राप्ति, कलित ढांचा का संरचना है। माटी के सबब ही, भाई - भाई बन जाते, एक - दूसरे के जिघत्नु हैं, और बन जाते हैं, एक - दूसरे के रुधिर के प्यासे हैं। लेखक :- उत्सव कुमार वत्स

आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ

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        आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ , रत्नगर्भा को हरा भरा बनाएँ , फिर से कलित झाँकी सजाएँ ,  धरा को नव मुखाकृति दिलाएँ , पतझड़ वन को वसंत बनाएँ , आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ। आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ , मानवों को जागृत कराएँ , वृक्ष का महत्व समझाएँ , और वृक्ष की कटती अदद के , तीव्र मोक्ष में विराम लगाएँ , आओ मिलकर बीच लगाएँ। आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ , लोगों को अवगत कराएँ , वृक्षों के अलावा धरा पर , हमारा जीवन होगा दुश्वार , इस विपत्ति की घड़ी को संभालने , आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ। आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ , हमारे जीवन का आश्रय वृक्ष , इन्हीं से हमें प्राप्त होती , औषधि, लकड़ी, भोजन और गैस , निस्वार्थ मन से परकल्याण की , इनको चुकाने पड़ते स्वमेव श्वास , हम इंसानों की इंसानियत को बचाने , आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ। लेखक :- उत्सव कुमार वत्स

मां सरस्वती

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ज्ञानदायिनी, वीणावादिनी कला निधान सर्वेश्वरी वही संध्येश्वरी, ब्राह्मी, भारती वही मां सरस्वती । जिसकी चतुर्थ भुजाएं विराजे जिसमें पुस्तक, वीणा उस विधात्री, कवित्त शक्ति को झुकाते अपना शीश हे । जिसकी भुजाओं में होते विराजमान पुस्तक महाज्ञान उस ईश्वरी, वर्णमातृका को करते है हम सब प्रणाम । जिनकी भुजाओं में होती वीणा जिसे हम कहते है वीणा ज्ञान वीणा की धुन मिटाती अज्ञानता को उस वीणा- पाणी को नमन । जिसकी आराधना करें ये जग जो ज्ञान दे पूरे संसार को उस मां सरस्वती, भारती को करे सलाम, ये जग सारी । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

सैनिक

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ठंडी, गर्मी हो या बरसात रहते सीमा पर तैनात खुद अपनी नींदों को त्याग देते हमें चैन की नींद वही हमारे वीर सैनिक । जब- जब देश पर संकट छाते डटे रहते दुश्मन के बीच अपने प्राणों को न्यूछावार कर करते हमारी रक्षा हैं वही हमारे वीर सैनिक । अपने परिवारों को छोड़ अपनाते अपने देश परिवार अपनी मां वो को छोड़ अपनाते अपनी धरती मां वही हमारे वीर सैनिक । सिर्फ लड़कियां ही नहीं छोड़ती अपनी घर हैं लड़के भी छोड़ते अपने घर दूर सीमा पर रहते तैनात वही हमारे वीर सैनिक । सीने में देशभक्ति की जुनून रखने वाले हमारे वीर उन्हीं की शहादत से लेते हम चैन की सांस वही हमारे वीर सैनिक । अमरेश कुमार जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

हवा

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जब ठंडी के दिवा आते चलती ठंडी- ठंडी हवा कपते सबके हाथ – पैर इनसे बचने के लिए हम करते हम दव का प्रयोग । जब जब गर्मी है आती चलती गरम गरम है लू लोगों की हालत गंभीर इनसे बचने के लिए हम करते हैं अंबु का प्रयोग । मकर संक्रांति आते जब उड़ाते अपना डोर-पतंग उड़ती जब पतंग हमारी इन मीठी मीठी हवाओं में झूम के खुश हो जाते हम । ऑक्सीजन से हम रहते जिंदा वही प्राणवायु , हवा कहलाती हवा जब जब गुब्बारों में जाती बच्चे के दिल में खुशियां छाती वही हमारी मंजु, मनोहर हवाएं । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

मंजिल

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मंजिल हमें एक दिवा में न मिल सकती हैं कभी सतत आगे बढ़ने से ही मिलती हमारी मंजिल है । हयातों में अक्सर जिन्हें मिलती न कोई अवलंब वे अपने सहर्ष- संघर्ष से पाते अपने मंजिल को । मंज़िल पाने में हमसबों को हजारों फ़ज़ीहते आएगी मुफ़लिसी से लड़कर ही मिलती हमारी मंज़िल है । मंज़िल को हासिल करने में कई काँटे रास्ते में आएंगे ही यही काँटे ही हमें हमारे पैरों के रफ्तार को बढ़ाएगे । जिंदगी में ऐसा ए- अमुक एक मानुज भी नहीं होगा जो अपने जीवन में कभी औंधा, प्रवृत्त न हुआ होगा । निष्ताफलता से हमें कभी अकुलाना न चाहिए हमें विफलता के पश्चात ही मिलती हमारी मंज़िल हैं । अमरेश कुमार जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

समय

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समय होता बलवान इनसे बड़ा न कोय खलक में आदर मिले जो करे इनका सत्कार्य । जब समय रहती है तो समझदारी नहीं रहती जब वक्त नहीं रहती तब समझदारी आती । समय कभी किसी का करता नहीं अगोलना राजा, रंक हो या फकीर होता सबके लिए बराबर । समय को जो ना व्यर्थ गवाएं वो जो चाहे सब कुछ कर पाए समय को जो हमेशा व्यर्थ गवाएं वो जिंदगी में कुछ ना कर पाए । अमरेश कुमार जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

जीतने की उम्मीद

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सफलता की गतिपथ पर मुसीबतें तो हजार आएगी लड़ा जो इन फ़ज़ीहतों से वही पाता अपनी मंजिल । संघर्ष में मानुज होता पृथक जय में दुनिया होती है साथ जिस जिस पर ये भव हंसा उसी उसी ने इति रचा अपनी । मनुषों को भी मंजिल मिलेगी यकीन उनको है विश्वास यहां अक्सर वो लोग रहते है मौन हयात में जिनके कला बोलते । जो मनुष्य होते क्लांति, रियाज़ती वह कभी किस्मत की वार्ता करते न किसी के रु की सिधाई पर मत जाना राख के नीचे बहुधा आग दबे हुए होते । सफलता की तरकश में हमेशा ही ही कोशिश की वान को हमेशा जिंदा रखो चाहे जिंदगी में हार जाओ सब कुछ फिर भी जीतने की उम्मीद जिंदा रखो । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

बचपन की यादें

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बचपन में दस्तावेज के पोत बनाकर उड़ाना उड़ाकर सानंद होना वो बचपन की यादें… बहुत याद आती है । बचपन में चौमासा होने पर नैया बनाकर वाः में डालना और खुश होकर उछलना वो बचपन की यादें… बहुत याद आती है । क्या वो, बाल्यपन था जब दो देउँगली को मिलने से हमारी सुह्रद हो जाती थी वो बचपन की यादें… बहुत याद आती है । बचपन में गुरुकुल जाते वक्त एक रुपया मां, पापा से मांगना मिलने पर झूमते हुए जाना वो बचपन की यादें… बहुत याद आती है । बचपन में विद्यापीठ न जाने की इच्छा होने पे तो भी जाना पड़ता था वो बचपन की यादें… बहुत याद आती है । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

पुस्तक

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पुस्तक पढ़ने से हमसबों को बढ़ता अधिक प्रबल विवेक सच्चा साथी, सच्चा सहारा बस अपना पुस्तक महाज्ञान । पुस्तक ने ही कैसो कैसो की सुधारी कईयों की जिदंगियाँ पुस्तके ही तो होती स्वजन मां शारदा का तुल्य, स्वरूप । पुस्तक पढ़कर ही लोग जाते अच्छे – अच्छे कितने मुकाम जिनसे वे जीते अपनी हयात सुख समृद्धि और खुशहाली से । पुस्तक को जस जस ठुकराया वह तस तस ही पछताता रहा… सदा करों पुस्तकों का सम्मान यही हमारा पुस्तक महाज्ञान । अमरेश कुमार वर्मा

तुलसी

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घर घर की हर आंगन में होनी चाहिए ये तुलसी जो हमे नित – प्रतिदिन देती सदा ऑक्सीजन । ऑक्सीजन से ही हम सब रहते बिल्कुल औचित्यपूर्ण उस जीवनदायिनी पौधे को हम सब करते उनको नमन । जिस निकेतन के अजिर में होता है ये तुलसी का पौधा वह निकेतन होता बिल्कुल स्वर्ग, फलोदय के ए- तुल्य । भारत की संस्कृति में इसे माना जाता है परमात्मा इसमें लोग नित- प्रतिदिन हमसब करते है जलधारण । तुलसी ही पादप ही ऐसा जो करता क्षत का नाश उस प्राणदायिनी पौधे को करते हम सब है सलाम । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

आजादी

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भारत जब था अंग्रेजों का भृत्य भारतीयों पर होता था नृशंसता तब भारतीयों ने आजादी हेतु खुलकल किया अंग्रेजों का टंटा । इस आजादी के लिए भारतीयों ने क्या से क्या झेले इस खलक में तब लेते हमसब आज बंधनमुक्त आजादी की खुली बयार में सांस । वीरों ने हँस हँस कर झूल गए फाँसी पर के झूले इस भव में तब जाकर पंद्रह अगस्त के दिवा हुआ भारत पराधीनता से मुक्त । भारत के रिहा, स्वच्छंद होने के पश्चात छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पचास को बाबा साहब ने दिया पूर्ण देश को कानून तब से लेकर आज तक, है भारत सुरक्षित । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

बारिश

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आकाश में छाए वारिधर चल रही हैं प्रताप बयारे क्षणप्रभा कड़क रही … क्षितिज भी देखो गुर्रा रहें वृष्टि की बूंदे छोटी- छोटी गिरने लगी धराधर त्वरित पाँख को नर्तकप्रिय फैलाएं चित्ताकर्षक- सी करती वो रहती अपनी नित्य भंगिमा वर्षा में कैसी दिखती चित्र ? जलाशय, पुष्कर, ताल में जल ही जल भरे हुए रहते विद्यमान तस हो जलमग्न मेंढक खुशी-खुशी टर टराते साथ ही मधुर – मधुर स्वर में होते मग्न हर एक प्राणिवान बच्चे – बूढ़े के संग किसान बारिश से सब होते प्रमुदित उच्चार झूम-झूम गिरे बयारे लाती हरियाली बढ़ चली चितवन की ओर ऊंघते मुंह किए घटित ये घटाएं , फोटो भी खींच रहें कौन हुंकार ? यह मौसम होता बड़ा मनोहर । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

मंजिल की उड़ान

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मंजिल को प्राप्त करने में हजारों उद्विग्नता आएगी जो मात दिया विपत्ति को उसी को मिलती अभ्युदय मंजिल की इस उड़ान में । मंजिल को पाने की चाह ही आपको ज़द तक ले जाएगी पतन का जो किया सामना उसी को मिलती सार्थकता मंजिल की इस उड़ान में । मानुज तो मंजिल बदल देते अटक, दुर्ग्राह्यता को देखके इन कक्लिष्टता से लड़ा जो उसी को मिलती है ख्याति मंजिल की इस उड़ान में । एक – एक सही पग आपको आपके गम्य तक ले जाएगी जो धेय से किया सतत द्वंद उसी को मिलती सफलता मंजिल की इस उड़ान में । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

जीवनदाता वृक्ष

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आओ मिलकर लगाए वृक्ष संपूर्ण धरती बनाए हरित द्रुम स्वयं लेती विषैली गैस हमें देती प्राणदायिनी गैस तरु स्वजन तपती स्वेद में हमें देती छाया, शीतल, फल राही विटप की छांव में बैठ, खट्टे- मीठे फल इनका खाता फिर भी लोग काट रहे रुक्ष वृक्ष न अब हम कटने देंगे ! पर्णी से ही बढ़ती हरियाली इनसे ही जीवन में खुशहाली दरख्त से ही होती वृष्टि, झंझा पावस, चौमासा से होती खेती बारिश से होती उत्तम फसलें प्रकृष्ट- उत्कृष्ट फसलें से होती उमदा, उन्नत अन्न की उपज अन्न से हम रहते खुशहाल विटप ही हमारे जीवनदाता यही होते हमारे सृष्टिकर्त्ता वृक्ष न अब हम कटने देंगे ! अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

मां शारदा

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विद्या की दाता, स्वरों की ज्ञाता जिन्हें हम जाने अनेकों नाम से वीणावादिनी, हंसवाहिनी, भारती सरस्वती, धनेश्वरी और मां शारदा । जो मनुष्य समाज को महानतम संपत्ति विद्याज्ञान करती हैं प्रदान आभूषण जिनके श्वेतपुष्प व मोती उस मां शारदा को करते हैं प्रणाम । आसन होते जिनके पुष्पराज कमल हाथों में होती जिनके पुस्तक, वीणा उस कलित – शक्ति, मां शारदा के चरणों में हमसब नवाते अपना शीश । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

लता मंगेशकर

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जिन्हें गाना गाने का शौक था बचपन से जिन्हें हम सब जाने लता दीदी के नाम से जिनके पिताजी थे एक प्रसिद्ध रंगमंचीय गायक जिनकी बहनें थी चार ऊषा, आशा, हृदयनाथ और मीना थी इनमें छोटी जिनके पिता पांच वर्ष की उम्र से ही सिखाते थे संगीत जिनकी गीते, मदर इंडिया मुग़ल-ए-आज़म और कई महान – महान फिल्मों में है जिन्हें सम्मानित किया गया भारत के अनेकों पुरस्कारों से जो उन्नीस सौ उन्नतीस में जन्में और दो हजार बाईस को इस संसार को छोड़कर चल बसी उस लता मंगेशकर को जाने से लगता संगीत का एक चमकता हीरा चल गया इस जग, संसार से करते हम सब उस स्वर-साम्राज्ञी, स्वर कोकिला को बार-बार नमन । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

प्यारा भारत

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जहां की मिट्टी मिट्टी में उपजे हीरा और मोती जहां सालों भर मनाते कोई- ना- कोई त्योहार वही अपना प्यारा भारत । जहां पर रहते अनेकों धर्मो, अनेक जाति- पाती के लोग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मनाते मिलजुलकर त्योहार वही अपना प्यारा भारत । जहां की धन- दौलतो को दुश्मनों ने लूटा बार – बार फिर भी वह देश कहलाता सोने की चिड़िया वाला देश वही अपना प्यारा भारत । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

स्वर कोकिला

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जो शौकीन थे संगीत के जो तीस से ज्यादा भाषाएं, गैर भाषाओं में गाए गीत उस संगीत की सितारा को सलाम करती जगत सारी । जिन्होंने दो हजार बाईस को खलक को किया अलविदा जो चल बसी बेराननवे वर्ष उस संगीत की वज्रमणि को सलाम करती जगत सारी । जिन्हें हम जाने कई नामों से स्वर- साम्राज्ञी, स्वर कोकिला और राष्ट्र की आवाज आदि से उस संगीत की आभा, द्युति को सलाम करती यह जगत सारी । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

बेजुवान मित्र

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कुत्ता, बिल्ली, हाथी हो या गौ हमें इनसबों के सहचारिता में करना नहीं चाहिए दुर्व्यवहार यह होते हमारे बेजुवान मित्र । हम मनुजों से तो विपुल वफादारी यह सब हमारे बेजुवान मित्र निभाते हैं इनसे मँजना चाहिए हमें । कभी – कभी आप आपने हिस्से की रोटी को इन कुछ बेजुवान मित्र को खिला दे ये अपनी मित्रता निभाने में अर्पण करते अपने प्राणों को । वैषम्य न होती कि कौन गीता, कौन कुरान पढ़ता मानुष तो वह है जो इन सब बेजुवान मित्रों की मृदुल जुबानों को पढ़ता । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

अकेलापन

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जब होती है हमे अकेलापन मत लगता नहीं इधर – उधर चित्त में छाई रहती है हताशी विचलित मन लगता खोया सा । किसी को आने से राँध हमारे हम चाहते कही पृथक हो जाए कही परे जाकर अकेला रहना यही अकेलापन की शिनाख़्त । पढ़ना, लिखना, खाना, पीना कुछ भी ना लगता उत्तम हमें क-दूर जाकर अकेला रहने को करता रहता यह विचलित मत । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय बिहार

विचलित मन

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मानस होता चंचल हमारा कभी कुछ तो कभी कुछ हर लम्हें ये विचलित मन कुछ न कुछ ब्योरना रहता । कभी कभी ये मन हमारा खोया – खोया सा लगता कुछ खाने -पीने का न हमें करता हमारा विचलित मन । ये चित्त हमारा कभी उत्तम कभी अधम की ओर जाता जैसा हम देखते – सोचते उधर ही जाता विचलित मन । हमारा ये विचलित मन कभी इधर तो कभी उधर करता रहता ये बार – बार विचलित मन न रहता स्थिर । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

चाह इंसानों की

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हम इंसानों की चाहत होती सिवा एक हमारी कितना भी निस्तार मिले फिर भी और चाहते हैं हम । हम इंसाने दिन-प्रतिदिन होते जा रहे ही ए-काहिल भव ने बहुत सी प्रसार की इंसानों ने इस विज्ञान से ही । हम इंसाने तो हर हाल में शोधते रहते सुकून सतत आराम के चलते ही हम अक्सर अपनाते त्रुटिपंथ । विज्ञान ने हम इंसानों को दिया बहुमूल्य वरदान हमे फिर भी हम मनुजों तो यहां चाहते है आराम ही आराम । अमरेश कुमार वर्मा

स्पर्धा भरी हयात

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इस हयात में हमें बार बार करना पड़ता आत्मश्लाघा संघर्ष के तत्पश्चात ही हमें मिलती ये धान्य ए-जिदगी । संघर्ष से हमें कभी भव में सकुचाना न चाहिए यदा इन्हीं में तो हम सबों को होती अपनों की द्योतक । अपने इस ऐश्वर्या जीवन में तप – ए – तपस्या पर किया, करता है जो परिपूर्ण जागीर उसका जीवन होता कामयाब । जीवन में अगर स्पर्धा न होती जिंदगी हमारी मुर्दे जैसे होती हयात में मिलती पराभव अनेक संघर्ष के उपरांत मिलती मंजिल । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

स्वाधीनता

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हर एक मनुजों की एक चाह होती बस स्वाधीनता हमारी कोई भी मनुष्य इस भुवन में रहना चाहता नहीं दासत्व में । जीव, जंतु हो या फिर मानुष रहना चाहता नहीं पराधीन में सबको प्यारी होती है अपनी स्वाधीनता भरी अपनी दुनिया । जयन्त की पक्षी से पूछो क्या है उनका हालचाल ? उड्डयन के लिए पर उनके रहते होंगे कितने व्याकुल । हमें किसी को कभी भी यहां करना चाहिए नहीं परितंत्र हरेक प्रणीवान आत्मा को स्वतंत्रता का दृढ़ है प्रभुत्व । सब आजादी की इस दुनिया में लेना चाहता स्वाधीनता की दम हमें कभी भी किसी प्राणी को दासता में बांधने का न है स्वत्व । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

नारियां

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नारियों की इतिहास देख जिसे पढ़ने का ना था स्वत्व पढ़ने लिखने वाले मानवी को उसके साथ ससुर देते थे ताने । आज नारियों हम मनुजों से उत्कष जाती आगे ही आगे आज वनिताओं अपनी यहां लहराती फिरती है आह्वान । आज नारियों को भारत में मर्त्य से है विपुल अधिकार आज रामणी को पितृ धन में भाइयों इतना‌ स्वत्व, प्रभुत्व । उथल पुथल कर डाली जिसने वही भारत आज की कामिनी आज की नारी अब किसी से रहती कबों न पिछु इस भव में । जिनकी सामर्थ्य को देखकर दुश्मन के छूट रहे हैं पसीनें ऊंची बुलंदी पर जाती रही वही भारत की नारी है ….

पैसों का खेल

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ये अवधि पहले जैसा, असंदिग्ध भी न रहा पहले पैसों की गुरुता, ना थी इस खलक में आज दौलतों के लिए , हम सब मनुजों ने तो बेच बैठा अपना निष्ठा, पैसों का खेल है आज । पैसे तो इधर से उधर , जाते आते रहते भव में किसी के राँध हमेशा, रहने वाला पदार्थ ना है जो त्रुटि कार्य करके, करता अर्जित वैभव को उसके पार्श्व रहता न धन, पैसों का खेल है आज । पैसों के चलते आज, भाई भाई में बनता नहीं धन के जरिया इल्ज़ाम , होती लड़ाई – झगड़े उभय मां लक्ष्मी की, होती है प्रपत्र सम्पदा श्रमी के पास रहती ये, पैसों का खेल है आज ।। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार