हुँकार मेरी भव में

छाया कहाँ मांगू कब और कहाँ से ? कौन पूछ रहा है किनको किन्तु अकिञ्चन ? मिलता हर सुख जहाँ हुँकार मेरी भव में स्वर शङ्खनाद हूँ मैं गुरुदेव के पुनीत चरणों में गङ्गा की धार भी मिलती और यमुना का श्रृङ्गार क्षितिज ओझिल किरणों से आती वो रश्मि प्रभा प्रज्ज्वलित हो उठे मस्तिष्क के भव सौन्दर्य में हिल उठे दिव समीर धरा जहाँ होती विहग के नाद पथ – पथ प्रशस्त करते जिनको तिनका बिछाती तन – मन में ऊपर – ऊपर बढ़ते कदम मत रोक उस प्रस्तर को तू कर दे किनारे स्वप्निल के आवाह्न करूँ चरण वन्दन करूँ मैं गुरुवर का यह आँगन स्वर झङ्कृत सार के दृग दोहे तस्वीर में शागिर्द बनूं समर्पण मेरी कब – कब के चिर दिवस आदि न अंत हो विष दर्प काहिल कटु उपदंश लौट चली मैं मृदङ्ग ताल स्वर स्पन्दन में कब से निशां की जुन्हाई देखो तो हो रहे कैसे जैसे रवि तम भी कहाँ विलीन में बिखेरती अपरिचित छाँव में यह युगसञ्चय सभ्यता संस्कृति के धरोहर को गूंथ – गूंथ के रचाती और जहाँ होती शक्ति किसलय विनय ज्ञान के कल