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हुँकार मेरी भव में

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छाया कहाँ मांगू कब और कहाँ से ? कौन पूछ रहा है किनको किन्तु अकिञ्चन ? मिलता हर सुख जहाँ हुँकार मेरी भव में स्वर शङ्खनाद हूँ मैं गुरुदेव के पुनीत चरणों में गङ्गा की धार भी मिलती और यमुना का श्रृङ्गार क्षितिज ओझिल किरणों से आती वो रश्मि प्रभा प्रज्ज्वलित हो उठे मस्तिष्क के भव सौन्दर्य में हिल उठे दिव समीर धरा जहाँ होती विहग के नाद पथ – पथ प्रशस्त करते जिनको तिनका बिछाती तन – मन में ऊपर – ऊपर बढ़ते कदम मत रोक उस प्रस्तर को तू कर दे किनारे स्वप्निल के आवाह्न करूँ चरण वन्दन करूँ मैं गुरुवर का यह आँगन स्वर झङ्कृत सार के दृग दोहे तस्वीर में शागिर्द बनूं समर्पण मेरी कब – कब के चिर दिवस आदि न अंत हो विष दर्प काहिल कटु उपदंश लौट चली मैं मृदङ्ग ताल स्वर स्पन्दन में कब से निशां की जुन्हाई देखो तो हो रहे कैसे जैसे रवि तम भी कहाँ विलीन में बिखेरती अपरिचित छाँव में यह युगसञ्चय सभ्यता संस्कृति के धरोहर को गूंथ – गूंथ के रचाती और जहाँ होती शक्ति किसलय विनय ज्ञान के कल

कल्पित

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कल्पित ०१ 1. मेरे गुरुवर शिक्षा दाहिनी मेरे गुरुवर प्रभा प्रज्ज्वलित हो तिमिर में मैं छत्रछाया हूँ आपके अजीर के पराभव अगोचर आपके चरण में पथ – पथ प्रशस्त रहनुमा हमारे कुसीद में साँवरिया आपके भव घन – घन वारि इल्म विस्तीर्ण अक़ीदा प्रज्ञा नय संस्कार अलङ्कृत आराध्य करुँ मैं कलित नव्य हयात पारावार मीन हूँ तड़पित खल तेरी करुणा आनन्दित सरोवर अवलम्ब श्रीहीन अंगानुभूति धरा निश्छल पैग़ाम तहजीब बसेरा शून्य शिथिल में मै तर्पित दामिनी प्रारब्ध अकिञ्चन धार दहलीज तेरी याचक नूतन चक्षु बूँद स्मृति धूल मैं नतशीर सदा उज्ज्वलित बिरद गिरि दिव में मार्तण्ड स्पृहा जय ध्वनि दीप्ति क्षितिज में 2. विजयपथ रेल – रेल सी ज़िन्दगी में क्या धोखा , क्या दीवानी हो ? पथ – पथ तिनका बिछाता मन में हो रहा वसुन्धरा सङ्कुचित काया बन बैठी मशक्कत मेरी दुनिया से मैं हूँ गाण्डीव किन्तु अर्जुन नहीं युधिष्ठिर दीपक का चिराग मैं कुरुक्षेत्र शङ्खनाद का रथी नहीं यह ललकार मेरी विजयपथ की मैं लौट आया हूँ अपने जग द्विज बनूँ या अपरिमित नहीं रङ्गमञ्च सौन्दर्य होती उज्ज्वल इस अट्टहास भरी परितोष नहीं अलौकिक निर्मल सुदर्शन बनूँ अपनी...