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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अति का अंत

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किसी भी नर, मनुजों के पार्श्व होता हद से अतिशय विभूति वही जर उसको करती बेसुध अति का अंत तय है भव में। किसी भी चीज का संसृति में मनुष्यों के राँध असीम होता वही ले जाते त्रुटिपूर्ण पंथ पे अति का अंत तय है भव में। किसी भी पदार्थ की गुरुता तभी रहेगी जब किंचित हो ए- परम होने पर न पणता अति का अंत तय है भव में। किसी भी वस्तु का लोक में गरजता से अनाचार होने पे आकृष्ट करती मिथ्या की ओर अति का अंत तय है भव में। किसी भी कोविंद को कभी हद से विपुल इल्म ही उसे ले जाती भूलयुक्त डगर पर अति का अंत तय है भव में किसी भी प्राणीवान जीव को गरज, ताल्लुक से निपट बल कतिपय को करती ए- विनष्ट अति का अंत तय हैं भव मे । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

भारतीय युवा

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जब- जब कोई मातम छाते भारतीय युवा सम्मुख आते संकट को कुचल डाल कर प्रीति से रहते भारतीय युवा। भारतीय युवा वर्ग भव में क्या से क्या न कर सकते ? किसी भी द्वेषी में न है हिम्मत भारतीय युवा से टक्कर लेने की। भारतीय युवा से लोहा लेना चाहते जल्दी न कोई जग में ये जो चाहे वे कर सकते यहां चाहे चाँद को लाना हो ज़मीं पे। चाहे कैसी भी उपपाद्य आये भारतीय युवा की होगी जय ये समस्त खल्क भी मान रही भारतीय युवा है कुछ खास । भारतीय युवा की ताकत का संपूर्ण दुनिया मान रही है लोहा भारतीय युवा इस पूर्ण दुनिया में फहराती फिरती परचम है यहां पे। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ईश्वर की जयघोश

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मानें तो हर घटक में ईश्वर न मानो तो किंचित भी न मानो तो पाषाण में कभी कुछ समय के लिए उनमें परमात्मा की आत्मा आती मानने पर प्रत्येक पदार्थ में करता ईश्वर वास इस भव में हम सब करते, ईश्वर की जय। माने तो भूमि भी अर्चना में परम-ए-परमेश्वर बन जाती लगता उनमें आ गया उक्थ उनका पूजा- अर्चना करके मांगते सब मंगलकामनाएं उनके याचना से हम मनुज सब नर – नारी होते यथार्थ तब हम करते ईश्वर की जय। वर्चस्व बरसाने वालों ईश्वर हमारे सबों के कष्ट को पृथक करने वाले क्षुधालु को भोजन, तृषित को पानी देने वाले वही हमारे परम-ए-परमेश्वर जो सच्चे चित्त से इनका करें सत्कार, आराधना इस खलक, जग संसार में उनकी मनोकामना होती है परिपूर्ण तब ही तो सब करते इनकी जयघोश। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

माटी के पुतले

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जगत में जिनका हुआ आमद उसको जग से निश्चित ही जाना चाहे लाख यत्न करले कोई भी लेकिन जाना तय है ही भव से क्यों कर रहा लूट काट डकैती ? भले कार्य करो ना हे प्रियतम तू माटी के पुतले हो ही भुवन में एक दिन माटी में ही मिल जाओगे। कोई भी नर, नारी स्वजन को सदा उत्तम बनाए रखना चाहता अपने रूप रंगों को सतत बनाए रखना चाहता इस जग, जहां में अवस्था के साथ- साथ उनका ये युवन रुप झड़ ही जाता यहां तू माटी के पुतले हो इस जग में एक दिन माटी में ही मिल जाओगे। अगर तू हयात दौड़ में तबदील ही कर ही बैठा तो अब क्या सोचना अपने उत्तम कार्यों के द्वारा ही हम अपने यश को पूर्ण विश्व में फैलाएं खलक से जाने के पश्चात भी हमें कर्म से ही याद किया जाएगा यहां तू माटी के पुतले हो इस जहांन में एक दिन माटी में ही मिल जाओगे। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ए- वृहत् महामारी गरीबी

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इस जिंदगानी में गरीबी क्या से क्या करवा सकती ? गरीबी एक दैन्य समस्या जो छाई हुई पूर्ण भारत में भारत ही ऐसा मुल्क नहीं जहां निर्धन को भूखे हमल सोना पड़ता फुटपाथों पर गरीबी एक वृहत् महामारी । गरीबी का नाम सुन के और मनन कर – कर के अभी भी इन विलोचन से आँसू की धारा श्रवनाती क्या कर सकता हूं मैं कैसे ऐसे- ऐसे लाखों, करोड़ों को बचा सकता हूं गरीबी एक विपुल समस्या। मैंने खुद देखा भव में अपनी नग्न नयनों से गरीबी क्या होती ? आज भी देख रहा हूं निर्धन भूखे बच्चों को जिसकी उम्र नादानी की वह अपना कुक्ष पालन हेतु भीख न मांगकर, करता श्रम न के सम करता मदद इन्हें कोय। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

बदलती दुनिया

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हमारी ये जगत, ख़लक है पूरी तरह कुंडलाकार हर लम्हे के संग संग ये बदलती रही है ये भुवन दुनिया में न कोई एदुजा अपना इस जग संसार में। इस जहान के कई अनूठा दिलजस्वी मजेदार दास्ताँ जिससे पता चलता यहां इस भू, धरा की इतिहास इतिवृत से हम मनुजों को पूर्ववृत्तांत की अभिज्ञता । लोक पर कब हयातों की शुरुआत हुई इस भव में इसका भी कूत, कयास लगाना भी बड़ी दुस्साध्य हमारे वैज्ञानिकों की यत्न सतत बदल रही है दुनिया । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

लूटपातों की हयात

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भारत में लूटपातों की अदद एक – दो न बीस – इक्कीस इसकी अदद विपुल वृहत् इस निरुपम से खलक में लूटपातों की हयात जग में बड़ी वेदना पूर्ण भरी होती वो कैसे स्वजन कार्यों को देते होंगे अंजाम भव में ? मेरा मानस सोच सोचके सहृदय निज दग्ध हो जाती हर वक्त- वक्त लूटपातों को सतत सावधान रहना पड़ता। लूटपातों की सुकुमार हयात उनकी भी क्या होगी जिंदगी ? कितने कष्टों , दुःखो से भरी लूटपाटों करने वाले का चित्त ए-दिवा वो भी भला इंसा होगा उसका त्रुटि पूर्ण परिवेश ही उस मनुजों, मनुष्य को वैसा बना देती लुटेरा, चोर, डकैत जब वह नादुरुस्त डगर का कर रहा होगा इंतख़ाब इसका उसको कोई भी स्वजन, दूजा अक्ष न आता होगा इस भव में। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

भारत की जाति व्यवस्था

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समानता- वैषम्य का भेदन न करना चाहिए इ- भव में सभी नर, मनुष्य को यहां इस जगत, संसार, सृष्टि में सभी को समीपस्थ रूप से है समानता का अधिकार। तुल्यता का अधिकार सबको दिया है भारत के संविधान में सब को इस स्वतंत्र भारत देश में अपनी उड़ान भरने का है प्रभुत्व समानता, समानता, समानता का स्वत्व बाबा साहब ने दिया सबको। पिछली जाति, लिंग, मत भेदन के आधार पर बाबा साहब ने दिए तंद्रा आगे लाने किए है प्रयास, कोशिश यह महज उन्होंने उत्तम तरकीब लगाकर तुल्य करने की कोशिश समानता, समानता ही जिंदगानी । लिंग भेदन जाति का भेद को उन्होंने पूरी तरह नष्ट करने की याथा संभव की किए प्रयत्न आज भी चंद नरों को छोड़ पूरी तरह से जाति व्यवथा खत्म हो गई आज भारत में। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

घुतिवान- ए- मनुज

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किसी भी नर, मनुजों को उत्तम, अधम कार्य से ही उनको मिलती है पहचान यथार्थ के पंथ पर चल के श्रेष्ठ कार्यों से बनाए द्योतक तब भव में होगी घुतिवानता । किसी को इस खलक में चमकने के लिए उनको करना पड़ेगा श्रम, तपस्या अथक श्रम से अनाचार ही बुद्धिमत्ता पूर्वक करे कार्य तब घुतिवान होगी ये जगत । ऐसे ही न घुति होती कोई इस अनूठा भुवन में कोय उससे लिए सतत परिश्रम करता पड़ता है इस जग में हर एक घुतिवान मनुजों के पार्श्व होती लाखों, हजारों गुण। घुतिवान मनुषों की पहचान अलग ही होती इस भव में उनका प्रभाव होता अनोखा होती है इस भव्य संसार में घुतिवान बनने के लिए हमें सदा श्रम की पड़ती अपेक्षित । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

संतुलन-ए-धरा

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हर चीज का इस भुवन में होना चाहिए उचित साम्य साम्यवस्था में रहने से ही सब कुछ ठीक होगी यहां। समभार के बिना ये हयात कभी न हो पाएगी संभव उचित मात्रा हर चीज की होती है अपेक्षित जग में। कोई भी वस्तु को जहाँ में ज्यादती होने से खलक में न हो पाएगी इस जग, सृष्टि, खल्क, धरा पर जीवन संभव। असंतुलनता चाहे किसी भी हो किसी प्रेतात्मा में हो या कुछ में खाद्यय में तीक्ष्ण की अधिकता तो होता अपना खाद्यय स्तब्ध। धरा पर अगर किसी प्राणी की किसी सबब हो जाए असंतुलन न बचेगी कोई प्राणीवान भव में वहीं से अंत इब्तिदा इस युग की। सतत बनाए रखे समरसता हर चीज की पड़ती गरजता संतुलन संतुलन संतुलन ही इन धरा की होती आकर्षिता। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

ए- अनूठा- हयात ईश्वरी देन

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किसी भी कृत्य, कार्य को अंजाम देने के लिए हमें होना चाहिए हमारे पार्श्व इस हयात में जोश, आवेग तब ही हम अपनें कार्य को दे सकते है हमसब अंजाम। किसी उत्तम हो या अधम करतब को करने में हमें कई तरह के मारफ़त से करवाया जा सकता यहां तृष्णा, लिप्सा, आक्रोश में अधर्म का पंथ होता आसां। किसी को कुछ करने में पड़ती जोश की गरजता किसी के दबाव में अक्सर हमें करना पड़ता हेय ‍कार्य उससे होगी बेवजीह हमारी सतत अपनाए उत्तम डगर । किसी को अपना सखावर हमें सोच समझकर बनानी चाहिए मित्र जैसा रहेगा वैसा ही हम सम्मुख जिंदगानी में हो जायेगे आक्रोश में ना ले कोई अद्ल ए- अनूठा- हयात ईश्वरी देन । अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

विपथगा

 झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन,  झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन । मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में,  अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुङ्कारों में,  मैं अहङ्कार - सी कड़क ठठा हँसती विद्युत् की धारों में,  बन काल - हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में अँगड़ाई में भूचाल, साँस में लङ्का के उनचास पवन । झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन । मेरे मस्तक के आतपत्र खर काल - सर्पिणी के शत फन, मुझ चिर - कुमारिका के ललाट में नित्य नवीन रुधिर - चन्दन,  आँजा करती हूँ चिता- धूम का दृग में अन्ध तिमिर - अंजन,  संहार - लपट का चीर पहन नाचा करती मैं छूम - छनन । झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन । पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है,  पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है,  लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है,  परकटे विहग - सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग - नरक जल जाता है,  गिरते दहाड़ कर शैल - शृङ्ग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन । झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन रस्सों से कसे जवान पाप- प्रतिकार न जब कर पाते हैं,  बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-काँप रह जाते हैं, ...

कविता__का__हठ (हुङ्कार से)

"बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?  कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री - हीन हुआ ?  सन्ध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन - आलोक मलीन हुआ ?  किस छाया में छिपी विभा ? श्रृङ्गार किधर उड्डीन हुआ ? इस अविकच यौवन पर रूपसि, बता, श्वेत साड़ी कैसी ?  आज असङ्ग चिता पर सोने की यह तैयारी कैसी ?  आँखों से जलधार, हिचकियों पर हिचकी ज़ारी कैसी ?  अरी बोल, तुझ पर विपत्ति आयी यह सुकुमारी! कैसी ?" यों कहते - कहते मैं रोया, रुद्ध हुई मेरी वाणी,  ढार मार रो पड़ी लिपट कर मुझ से कविता कल्याणी ।  "मेरे कवि ! मेरे सुहाग! मेरे राजा ! किस ओर चले ?  चार दिनों का नेह लगा रे छली ! आज क्यों छोड़ चले ? "वन - फूलों से घिरी कुटी क्यों आज नहीं मन को भाती ?  राज - वाटिका की हरीतिमा हाय, तुझे क्यों ललचाती ?  करुणा की मैं सुता बिना पतझड़ कैसे जी पाऊँगी ?  कवि ! वसन्त मत बुला, हाय, मैं विभा बीच खो जाऊँगी। "खँडहर की मैं दीन भिखारिन, अट्टालिका नहीं लूँगी,  है सौगन्ध, शीश पर तेरे रखने मुकुट नहीं दूंगी।  तू जायेगा उधर, इधर मैं रो-रो दिवस बि...

फूलों__के__पूर्व__जन्म (हुङ्कार से)

प्रिय की पृथुल जाँघ पर लेटी करती थीं जो रँगरलियाँ, उनकी क़ब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ। पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली, वे भौंरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। तनिक चूमने से शरमीली सिहर उठी जो सुकुमारी, सघन तृणों में छिप उग आयी वह बन छुई- मुई प्यारी। जिनकी अपमानित सुन्दरता चुभती रही सदा बन शूल,  वे जगती से दूर झूमतीं सूने में बन कर वन-फूल । अपने वलिदानों से जग में जिनने ज्योति जगायी है,  उन पगलों के शोणित की लाली गुलाब में छायी है। अबुध वत्स जो मरे हाय, जिन पर हम अश्रु बहाते हैं,  वे हैं मौन मुकुल अलबेले खिलने को अकुलाते हैं ! -- रामधारी सिंह दिनकर

सिपाही (हुङ्कार से)

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ।  जीवन की क्या चहल - पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना। मसि की तो क्या बात ? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,  जीते जी लड़ मरूँ, मरे पर याद किसे फिर आती है ?  इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,  विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी ? जग भूले, पर मुझे एक, बस, सेवा - धर्म निभाना है,  जिसकी है यह देह उसीमें इसे मिला मिट जाना है।  विजय - विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,  फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे ? वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आकर तुम्हें जगायेगी,  सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर- बीच खो जायेगी।  देव करेंगे विनय, किन्तु, क्या स्वर्ग - बीच रुक पाऊँगा ?  किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊँगा। तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूँगा इधर - उधर,  कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बनकर।  अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,  रह जाऊँगा मौ...

परिचय (हुङ्कार से)

सलिल-कण हूँ कि पारावार हूँ मैं ?  स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं।  बँधा हूँ, स्वप्न है, लघु वृत्त में हूँ,  नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं। समाना चाहती जो बीन - उर में,  विकल वह शून्य की झङ्कार हूँ मैं।  भटकता, मैं खोजता हूँ ज्योति तम में,  सुना है, ज्योति का आगार हूँ मैं। जिसे निशि खोजती तारे जला कर,  उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं।  जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन,  अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं ? कली की पंखुड़ी पर ओस - कण में  रँगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं ;  मुझे क्या आज ही या कल झडूं मैं ?  सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं। जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,  किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं।  गिरा हूँ भूमि पर नन्दन - विपिन से,  अमर - तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं। मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण ! जब से  लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं । रुदन ही एक पथ प्रिय का, इसी से,  पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं। मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का ?  चिता का धूलि कण हूँ, क्षार हूँ मैं।  पता मेरा तुम्हें मिट्टी कहेगी ...

पतझड़__की__सारिका (रसवन्ती से)

सूखे विटप की सारिके ! उजड़ी - कटीली डार से मैं देखता, किस प्यार से  पहना नवल पुष्पाभरण  तृण, तरु, लता, वनराजि को,  हैं जा रहे विहसित - वदन  ऋतुराज मेरे द्वार से । मुझ में जलन है, प्यास है,  रस का नहीं आभास है,  यह देख हँसती वल्लरी,  हँसता निखिल आकाश है। जग तो समझता है यही,  पाषाण में कुछ रस नहीं,  पर, गिरि - हृदय में क्या न  व्याकुल निर्झरों का वास है ? बाकी अभी रसनाद हो,  पिछली कथा कुछ याद हो,  तो कूक पंचम तान में,  संजीवनी भर गान में। सूखे विटप की डार को  कर दे हरी करुणामयी ;  पढ़ दे ऋचा पीयूष की, उग जाय फिर कोंपल नयी ; जीवन - गगन के दाह में  उड़ चल सजल नीहारिके !  सूखे विटप की सारिके ! १९३६ ई० -- रामधारी सिंह दिनकर

गीत- शिशु (रसवन्ती से)

आशीर्वचन कहो मङ्गमयि, गायन चले हृदय से,  दुर्वासन अवनि ! किरण मृदु, उतरो नील निलय से।  बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे,  जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट - प्रलय से। ये अबोध कल्पक के शिशु क्या रीति जगत् की जानें,  कुछ फूटे रोमांच - पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से।  निज मधु - चक्र निचोड़ लगन से पाला इन्हें हृदय ने,  बड़े नाज़ से,बड़ी साध से, ममता, मोह, प्रणय से। चुन अपरूप विभूति सृष्टि की मैंने रूप सँवारा,  उडु से द्युति, गति बाल लहर से, सौरभ रुचिर मलय से।  सोते - जगते मृदुल स्वप्न में सदा किलकते आये,  नहीं उतारा कभी अङ्क से कठिन भूमि के भय से। नन्हें अरुण चरण ये कोमल, क्षति की परुष प्रकृति है,  मुझे सोच, पड़ जाय कहीं पाला न कुलिश निर्दय से।  अर्जित किया ज्ञान कब इनने, जीवन - दुख कब झेला ?  अभी अबुध ये खेल रहे थे रजकण के संचय से। सीख न पाये रेणु - रत्न का भेद अभी ये भोले,  मुट्ठी भर मिट्टी बदलेंगे कंचन - रचित वलय से ।  कुछ न सीख पाये, तो भी रुक सके न पुण्य - प्रहर में,  घुटनों बल चल पड़े, पुकारा तु...

गीत- अगीत (रसवन्ती से)

गीत, अगीत, कौन सुन्दर है ?              (१) गाकर गीत विरह के तटिनी  वेगवती बहती जाती है,  दिल हलका कर लेने को  उपलों से कुछ कहती जाती है।  तट पर एक गुलाब सोचता,  "देते स्वर यदि मुझे विधाता,  अपने पतझर के सपनों का  मैं भी जग को गीत सुनाता।" गा - गा कर बह रही निर्झरी,  पाटल मूक खड़ा तट पर है।  है गीत, अगीत, कौन सुन्दर है ?                 (२) बैठा शुक उस घनी डाल पर  जो खोंते पर छाया देती,  पंख फुला नीचे खोंते में  शुकी बैठ अण्डे है सेती ।  गाता शुक जब किरण बसन्ती  छूती अङ्ग पर्ण से छन कर,  किन्तु, शुकी के गीत उमड़ कर  रह जाते सनेह में सनकर । गूँज रहा शुक का स्वर वन में,  फूला मग्न शुकी का पर है गीत,  अगीत, कौन सुन्दर है ?       (३) दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब बड़े साँझ आल्हा गाता है,  पहला स्वर उसकी राधा को घर से यहाँ खींच लाता है। चोरी -  चोरी खड़ी नीम की छाया में छिपकर सुनती है, 'हुई न क्यों मैं कड़ी ग...

बालिका__से__बधू (रसवन्ती से)

माथे में सेंदुर पर छोटी दो बिन्दी चमचम - सी,  पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम - सी।  लदी हुई कलियों से मादक टहनी एक नरम- सी,  यौवन की विनती - सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम- सी । पीला चीर, कोर में जिसकी चकमक गोटा - जाली,  चली पिया के गाँव उमर के सोलह फूलों वाली।  पी चुपके आनन्द, उदासी भरे सजल चितवन में,  आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आँगन में। आँखों में दे आँख हेरती हैं, उसको जब सखियाँ,  मुस्की आ जाती मुख पर, हँस देतीं रोती अँखियाँ।  पर, समेट लेती शरमाकर बिखरी - सी मुसकान,  मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनी -  समान । भींग रहा मीठी उमङ्ग से दिल का कोना - कोना,  भीतर - भीतर हँसी देख लो, बाहर - बाहर रोना ।  तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनक - कली - सी,  तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरिणी पतली - सी । तू वह, रच कर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिँगार,  तू वह जो धूसर में आयी सबुज रङ्ग की धार ।  माँ की ढीठ दुलार ! पिता की ओ लजवन्ती भोली,  ले जायगी हिया की मणि को अभी पिया की डोली । कहो, कौन होगी, इस घर की तब शीतल उजियारी ?...

प्रीति (रसवन्ती से)

             (१) प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि ! पल - भर चमक बिखर जाते जो मना कनक - गोधूलि लगन सखि ! प्रीति नील, गम्भीर गगन सखि ! चूम रहा जो विनत धरणि को  निज सुख में नित मूक- मगन सखि !              (२) प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि ! जो होता नित क्षीण, एक दिन  विभा सिक्त करके अग - जग सखि ! दूज कला यह लघु नभ- नग सखि ! - शीत, स्निग्ध, नव रश्मि छिड़कती बढ़ती ही जाती पग - पग सखि !                (३) मन की बात न श्रुति से कह सखि ! बोले प्रेम विकल होता है,  अनबोले सारा दुख सह सखि ! कितना प्यार ? जान मत यह सखि ! सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे  बसती कहीं प्रीति अहरह सखि !               ( ४ ) तृणवत् धधक - धधक मत जल सखि ! ओदी आँच धुनी विरहिन की,  नहीं लपट की चहल-पहल सखि ! अन्तर्दाह मधुर मङ्गल सखि !  प्रीति - स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो  सुलग रहा तिल तिल, पल-पल सखि !  १९३६ ई० -- रामधारी सिंह दिनकर

दाह__की__कोयल (रसवन्ती से)

दाह के आकाश में पर खोल, कौन तुम बोली पिकी के बोल ?                  (१) दर्द में भीगी हुई - सी तान,  होश में आता हुआ - सा गान; याद आयो आयु की बरसात,  फिर गयी दुग में उजेली रात;  कपिता उजली कली का वृन्त,  फिर गया दृग में समग्र बसन्त । मुँद गयी पलकें खुले जब कान,  सज गया हरियालियों का ध्यान;  मुँद गयीं पलकें कि जागी पीर,  पीर, बिलुड़ी चीज़ की तस्वीर।  प्राण की सुधि - ग्रन्थि भूली खोल,  कौन तुम बोली पिकी के बोल ?                (२) दूर छूटी छाँहवाली डाल,  दूर छूटी तरु - द्रुमों  की माल; दूर छूटा पत्तियों का देश,  तलहटी का दूर रम्य प्रदेश;  बसु जाने न जल का नाद,  कब मिली कलियाँ, नहीं कुछ याद। ओस - तृण को आज सिर्फ़ बिसूर  चल रहा मैं बाग - वन से दूर।  शीश पर जलता हुआ दिनमान,  और नीचे तप्त रेगिस्तान ।  छाँह-सी - मरु पन्थ में तब डोल,  कौन तुम बोली पिकी के बोल ?                 ...

नारी (रसवन्ती से)

खिली भू पर जब से तुम नारि,  कल्पना - सी विधि की अम्लान,  रहे फिर तब से अनु अनु देवि !  लुब्ध भिक्षुक - से मेरे गान । तिमिर में ज्योति - कली को देख  सुविकसित, वृन्तहीन, अनमोल ;  हुआ व्याकुल सारा संसार,  किया चाहा माया का मोल । हो उठी प्रतिभा सजग, प्रदीप्त,  तुम्हारी छवि ने मारा बाण ;  बोलने लगे स्वप्न निर्जीव,  सिहरने लगे सुकवि के प्राण । लगे रचने निज उर को तोड़  तुम्हारी प्रतिमा प्रतिमाकार,  नाचने लगी कला चहुँ ओर  भाँवरी दे - दे विविध प्रकार । ज्ञानियों ने देखा सब ओर  प्रकृति की लीला का विस्तार;  सूर्य, शशि, उडु जिनकी नख - ज्योति  पुरुष उन चरणों का उपहार । अगम 'आनन्द' - जलधि में डूब  तृषित 'सत् चित्' ने पायी पूर्ति ;  सृष्टि के नाभि - पद्म पर नारि !  तुम्हारी मिली मधुर रस - मूर्ति । कुशल विधि - मानस का नवनीत,  एक लघु दिव - सी हो अवतीर्ण,  कल्पना - सी, माया - सी, दिव्य  विभा - सी भू पर हुई विकीर्ण । दृष्टि तुमने फेरी जिस ओर  गयी खिल कमल - पंक्ति अम्लान;  हिस्र मानव के कर से ...

अगुरु धुम (रसवन्ती से)

कल मुझे पूज कर चढ़ा गया  अलि, कौन अपरिचित हृदय - हार ?  मैं समझ न पायी गूढ़ भेद,  भर गया अगुरु का अन्धकार ।              (१) श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु  गुनगुना रहा था मर्म - गान,  "आ रहा दूर से मैं निराश,  तुम दे पाओगी तृप्ति - दान ?  यह प्रेम - बुद्ध के लिए भीख,  चाहिए नहीं धन, रूप, देह,  मैं याच रहा बलिदान पूर्ण,  है यहाँ किसी में सत्य स्नेह ? पुरनारि ! तुम्हारे ग्राम बीच भगवान पड़े हैं निराहार ।”  मैं समझ न पायी गूढ़ भेद,  भर गया अगुरु का अन्धकार ।              (२) सिहरा जानें क्यों मुझे देख,  बोला, "पूजेगी आज आस;  पहचान गया मैं सिद्धि देवि !  हो तुम्ही यज्ञ का शुचि हुताश। मैं अमित युगों से हेर रहा,  देखी न कभी यह विमल कान्ति,  ऐसी स्व - पूर्ण भ्रू - बँधी तरी, ऐसी अमेय, निर्मोघ शान्ति।  नभ - सदृश चतुर्दिक तुम्हें घेर छा रहे प्रेम प्रभु निराकार ।" मैं समझ न पायी गूढ़ भेद,  भर गया अगुरु का अन्धकार।       ...

कबीर वाणी

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                     पद 1 हम तौ एक एक करि जांनां।  दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ॥  एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांनां।  एकै खाक गढ़े सब भांडै़ एकै कोंहरा सांनां ।।  जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।  सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धेरै सरूपै सोई ।।  माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां। निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां॥                   पद 2 संतो देखत जग बौराना। साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।  नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।  आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।  बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़े कितेब कुराना।  कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना ||  आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।  पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।  टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना। साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।  हिन्दू कहै मोहि राम पिय...

मीराबाई.की पदावली

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                           पद 1 मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई  जा के सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई  छाड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहै कोई?  संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक - लाज खोयी  असुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोयी  अब त बेलि फैलि गयी, आणंद-फल होयी  दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी  दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी  भगत देखि राजी हुयी, जगत देखि रोयी  दासि मीरां लाल गिरधर ! तारो अब मोही                        पद 2 पग घुंघरू बांधि मीरां नाची, मैं तो मेरे नारायण सूं, आपहि हो गई साची  लोग कहै, मीरां भइ बावरी; न्यात कहै कुल-नासी  विस का प्याला राणा भेज्या, पीवत मीरां हाँसी  मीरां के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनासी

पथिक

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प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला ।  रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।  नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।  घन पर बैठ, बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है।। रत्नाकर गर्जन करता है, मलयानिल बहता है।  हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता है।  इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के ॥  निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा। कमला के कंचन- मंदिर का मानो कांत कँगूरा।  लाने को निज पुण्य - भूमि पर लक्ष्मी की असवारी। रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी ।।  निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।  लहरों पर लहरों का आना सुंदर, अति सुंदर है।  कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?  अनुभव करो हृदय से, हे अनुराग-भरी कल्याणी ।। जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।  अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।  सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।  तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।। उससे ही विमुग्ध हो नभ में चं...

वे आँखें

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अंधकार की गुहा सरीखी  उन आँखों से डरता है मन,  भरा दूर तक उनमें दारुण  दैन्य दुख का नीरव रोदन! वह स्वाधीन किसान रहा,  अभिमान भरा आँखों में इसका,  छोड़ उसे मँझधार आज  संसार कगार सदृश बह खिसका! लहराते वे खेत दृगों में हुआ बेदखल वह अब जिनसे,  हँसती थी उसके जीवन की  हरियाली जिनके तृन-तृन से! आँखों ही में घूमा करता  वह उसकी आँखों का तारा,  कारकुनों की लाठी से जो  गया जवानी ही में मारा ! बिका दिया घर द्वार,  महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,  रह-रह आँखों में चुभती वह  कुर्क हुई बरधों की जोड़ी! उजरी उसके सिवा किसे कब  पास दुहाने आने देती?  अह, आँखों में नाचा करती उजड़ गई जो सुख की खेती ! बिना दवा दर्पन के घरनी  स्वरग चली, आँखें आती भर,  देख-रेख के बिना दुधमुँही  बिटिया दो दिन बाद गई मर! घर में विधवा रही पतोहू,  लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,  पकड़ मँगाया कोतवाल ने,  डूब कुएँ में मरी एक दिन! खैर, पैर की जूती, जोरू  न सही एक, दूसरी आती, पर जवान लड़के की सुध कर  साँप लोटत...

घर की याद

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आज पानी गिर रहा है,             बहुत पानी गिर रहा है,  रात भर गिरता रहा है,  प्राण मन घिरता रहा है, बहुत पानी गिर रहा है,  घर नज़र में तिर रहा है,  घर कि मुझसे दूर है जो,  घर खुशी का पूर है जो, घर कि घर में चार भाई,  मायके में बहिन आई,  बहिन आई बाप के घर,  हाय रे परिताप के घर! घर कि घर में सब जुड़े हैं,  सब कि इतने कब जुड़े हैं,  चार भाई चार बहिनें,  भुजा भाई प्यार बहिनें, और माँ बिन - पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी  माँ कि जिसकी गोद में सिर,  रख लिया तो दुख नहीं फिर, माँ कि जिसकी स्नेह - धारा,  का यहाँ तक भी पसारा,  उसे लिखना नहीं आता,  जो कि उसका पत्र पाता। पिता जी जिनको बुढ़ापा,  एक क्षण भी नहीं व्यापा,  जो अभी भी दौड़ जाएँ,  जो अभी भी खिलखिलाएँ, मौत के आगे न हिचकें,  शेर के आगे न बिचकें,  बोल में बादल गरजता,  काम में झंझा लरजता,  आज गीता पाठ करके,  दंड दो सौ साठ करके,  खूब मुगदर हिला लेकर,  मूठ उनकी मिला ले...

चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

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चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती  मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है  उसे बड़ा अचरज होता है:  इन काले चीन्हों से कैसे ये सब स्वर  निकला करते हैं चंपा सुन्दर की लड़की है  सुन्दर ग्वाला है: गायें-भैंसें रखता है  चंपा चौपायों को लेकर  चरवाही करने जाती है चंपा अच्छी है चंचल है नटखट भी है कभी कभी ऊधम करती है  कभी कभी वह कलम चुरा देती है जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ  पाता हूँ अब कागज़ गायब  परेशान फिर हो जाता हूँ चंपा कहती है: तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर  क्या यह काम बहुत अच्छा है यह सुनकर मैं हँस देता हूँ  फिर चंपा चुप हो जाती है उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि  चंपा, तुम भी पढ़ लो  हारे गाढ़े काम सरेगा  गांधी बाबा की इच्छा है - सब जन पढ़ना-लिखना सीखें चंपा ने यह कहा कि मैं तो नहीं पढूँगी  तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं  वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे  मैं तो नहीं पढूँगी मैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा है ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,...

दुष्यंत कुमार के गज़ल

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कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,  कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,  ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए। खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,  कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए। वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,  मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए। तेरा निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की,  ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए। जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,  मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।                                                  

अक्कमहादेवी के पद

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         (1) हे भूख! मत मचल प्यास, तड़प मत हे नींद ! मत सता क्रोध, मचा मत उथल-पुथल  हे मोह ! पाश अपने ढील लोभ, मत ललचा  हे मद! मत कर मदहोश  ओ चराचर! मत चूक अवसर ईर्ष्या, जला मत आई हूँ संदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का                                         (2) हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर  मँगवाओ मुझसे भीख  और कुछ ऐसा करो  कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह  झोली फैलाऊँ और न मिले भीख  कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को  तो वह गिर जाए नीचे  और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने  तो कोई कुत्ता आ जाए  और उसे झपटकर छीन ले मुझसे ।                                     

सबसे खतरनाक

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मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती  पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती  गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है  सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है  पर सबसे खतरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है  मुट्ठियाँ भींचकर बस वक्त निकाल लेना बुरा तो है सबसे खतरनाक नहीं होता सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना न होना तड़प का सब सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना  सबसे खतरनाक होता है  हमारे सपनों का मर जाना सबसे खतरनाक वह घड़ी होती है  आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो  आपकी निगाह में रुकी होती है। सबसे खतरनाक वह आँख होती है जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है  जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है जो चीज़ों से उठती अंधेपन की भाप पर दुलक जाती है  जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई  एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है सबसे खतरनाक वह चाँद होता है  जो हर हत्याकांड के बाद वीरान ...

आओ, मिलकर बचाएँ

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अपनी बस्तियों को  नंगी होने से  शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे बचाएँ डूबने से  पूरी की पूरी बस्ती को  हड़िया में अपने चेहरे पर  सन्थाल परगना की माटी का रंग  भाषा में झारखंडीपन ठंडी होती दिनचर्या में  जीवन की गर्माहट  मन का हरापन  भोलापन दिल का  अक्खड़पन, जुझारूपन भी भीतर की आग  धनुष की डोरी  तीर का नुकीलापन  कुल्हाड़ी की धार  जंगल की ताजा हवा  नदियों की निर्मलता  पहाड़ों का मौन  गीतों की धुन  मिट्टी का सोंधापन  फसलों की लहलहाहट नाचने के लिए खुला आँगन  गाने के लिए गीत  हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट  रोने के लिए मुट्ठी भर एकान्त बच्चों के लिए मैदान  पशुओं के लिए हरी-हरी घास  बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शान्ति और इस अविश्वास-भरे दौर में थोड़ा-सा विश्वास थोड़ी-सी उम्मीद थोड़े-से सपने आओ मिलकर बचाएँ  कि इस दौर में भी बचाने को  बहुत कुछ बचा है,  अब भी हमारे पास !                          ...

तुलसीदास की रचना

हृदय सिंधु मति सीप समाना।  स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।  जो बरषइ बर बारि विचारू।  होंहि कवित मुक्तामनि चारू।                                       

सूरदास के पद

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                       (1)          ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी ।  अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।  पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी ।  ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।  'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।                           (2)              मन की मन ही माँझ रही।  कहिए जाइ कौन पै ऊधी, नाहीं परत कही।  अवधि अधार आस आवन की, तन मन विधा सही।  अब इन जोग सँदेसनि सुनि -  सुनि, विरहिनि बिरह दही। चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।  'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही ।।                            (3)             हमारैं हरि हारिल की लकरी।  मन क्रम ब...

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

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नाथ संभुधनु भंजनिहारा।   होइहि के एक दास तुम्हारा।आयेसु काह कहिअ किन मोही।   सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।  सेवकु सो जो करै सेवकाई।   अरिकरनी करि करिअ लराई।  सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा।  सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।   सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।    न त मारे जैहहिं सब राजा।। सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने।  बोले परसुधरहि अवनामे।। बहु धनुही तोरी लरिकाईं।   कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।  येहि धनु पर ममता केहि हेतू।    सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥  रे नृपबालक कालबस  बोलत तोहि न सँभार। धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ।। लखन कहा हसि हमरे जाना।   सुनहु देव सब धनुष समाना॥  का छति लाभु जून धनु तोरें।   देखा राम नयन के भोरें। छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू।    मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।। बोले चितै परसु की ओरा।    रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।।  बालकु बोलि बधौं नहि तोही।    केवल मुनि जड़ जानहि मोही।। बाल ब्रह्मचारी अति कोही।   बिस्व...

सवैया

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पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई ।साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई । माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई ।  जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह 'देव' सहाई ।।               कवित्त डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,  सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।  पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं 'देव', कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।।  पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,  कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै। मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,  प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।।                     कवित्त फटिक सिलानि सौं सुधार्यौ सुधा मंदिर,  उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद। बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए 'देव', दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद ।  तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति, मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद ।  आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै, प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।।         ...

अट नहीं रही है

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अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है। कहीं साँस लेते हो,  घर-घर भर देते हो,  उड़ने को नभ में तुम  पर-पर कर देते हो,  आँख हटाता हूँ तो  हट नहीं रही है।  पत्तों से लदी डाल  कहीं हरी, कहीं लाल,  कहीं पड़ी है उर में  मंद-गंध-पुष्प-माल,  पाट-पाट शोभा - श्री  पट नहीं रही है।                                   लेखक:- सूर्यकांत  त्रिपाठी निराला

सहर्ष स्वीकारा है

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जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है  सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हें प्यारा है। गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब यह विचार - वैभव सब दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब मौलिक है, मौलिक है इसलिए कि पल-पल में  जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है - संवेदन तुम्हारा है! ! जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है। जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता है। दिल में क्या झरना है? मीठे पानी का सोता है भीतर वह, ऊपर तुम मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात - भर मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है! सचमुच मुझे दंड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं  तुम्हें भूल जाने की  दक्षिण ध्रुवी अंधकार - अमावस्या शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित  रहने का रमणीय यह उजेला अब सहा नहीं जाता है। नहीं सहा जाता है। ममता के बादल की मँडराती  कोमलता - भीतर पिराती है। कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह  छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नहीं होती है!! सचमुच मुझे दंड दो ...

महाराष्ट्र

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मैं महाराष्ट्र हूँ.... शंहशाह ही मेरा राज्य  मराठों के भूमि यह सब राज्यों के है सरताज संत-परमात्मा बसे यहाँ अजंता एलोरा एलीफेंटा है  यहाँ गेटवे ऑफ इंडिया का राज चंद्रआभाओं के जुन्हाई जिन्हें भाएँ वन्दनीय-पूज्यनीय के ये राज्य इतिवृतो के पन्नों के धरोहर में अस्सक अशोक बम्बई देखा मौर्यो वकटको चालुक्य आएँ खिलजी तुग़लक़ औरंगजेब देखा  देवगिरी सोपर नान्देड राष्ट्रकूट राजवंश में हजूर साहिब वाड़ा किला जैसे ताज देखा स्वच्छन्द हुए, स्वतन्त्र हुए हम और राज्य ०१ मई १९६० आविर्भाव मेरा रीवा में छत्रपति शिवाजी महाराज की भूमि में विजयनगर के कृष्ण देव राय को देखा --- वरुण सिंह गौतम

मजदूर

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मजदूर हूँ, हाँ मजदूर हूँ संघर्ष मेरे हृदय में लय हो दुनिया में हूँ दुनिया का हूँ मैं सूखी एक ही  रोटी शक्ति मेरी पसीने से ही सदा नाहता हूँ ईमान अपना न कभी खोता हूँ कोई मुझे धिक्कार कहे..... उसे भी पी के सह लेता हूँ सीमितता को अगर वो खोएँ मैं क्रान्ति का हुँकार भी करता हूँ विजयी हूँ विजय रहता हूँ हम क्योकि हाँ....... मै मजदूर हूँ, हाँ मजदूर हूँ। ---- वरुण सिंह गौतम

श्रमिकों की पीड़ाएँ

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छोड़-छाड़ कर इधर-उधर की,                 साहित्यिक-क्रीड़ाएँ मैं लिखता हूँ कुछ थोड़ी सी ही,                श्रमिकों की पीड़ाएँ मैं जिनसे सब आराम उठाते,                 वे आराम न पाते हैं माल-मलाई ठलुआ खाते,                 पर वे सादा खाते हैं जिनसे श्रम संचालित होता,                 वे सब कठिनाई झेलें वे ही लोग विमान बनाते,                  उनसे ही बनतींं रेलें सब निर्माण वही करते हैं,                उनसे महल खड़े होते जिनसे बड़े,बड़े बनते हैं,                 सबसे वही बड़े होते उपयोगी वस्तुएँ बनाते,                  वे ही मिलें चलाते हैं सच मानो तुम सभी प्रगति का,             ...

पाँच दोहे

*1--युद्ध* वर्तमान में देश दो, हुए परस्पर क्रुद्ध । रूस और यूक्रेन में, अभी चल रहा *युद्ध* ।। *2--भय* चलता यदि होगा नहीं, जबतक युद्ध समाप्त । पूरे इस संसार में, तब तक है *भय* व्याप्त ।। *3--नाश* जीत मिले या हार हो, करता युद्ध हताश । युद्धों का परिणाम बस, नाश-नाश बस *नाश* ।। *4--नीति* अच्छी होती ही नहीं, कभी युद्ध की *नीति* । रहती सर्वोत्तम सदा, जनमानस में प्रीति ।। *5--शांति* *शांति* और संतोष ही, जीवन में उपयुक्त । जान-माल की हानि से, रखते हैं ये मुक्त ।। डॉ० रामप्रकाश 'पथिक'         कासगंज ( उ.प्र.) पाँच शब्दों पर प्रस्तुत हैं पाँच दोहे तथा एक अतिरिक्त दोहा, जिसमें पाँचों शब्द हैं ---          *छै दोहे* *1--ताल* ग्रीष्म तपाती है धरा, धूप हुई विकराल । देखो वर्षा के बिना, रिक्त पड़े सब *ताल* ।। *2--नदी* धीरे-धीरे कह रही, मंद *नदी* की धार । मुझे और जल चाहिए, बादल सुनो पुकार ।। *3--पोखर* *पोखर* पानी के बिना, गया एकदम सूख । खाली पूरा पेट है, उसको जल की भूख ।। *4--झील* परिवर्तित होती गई, दलदल में यह *झील*। धूप गई है ग्रीष्म की, पूरा पानी लील ।। *5...

एक नवीनतम गीत

                  *गीत*                    ------- आओ पास हमारे बैठो,    अपलक तुम्हें निहारूँ प्रियतम अपने नैनों के दीपक से,     मैं आरती उतारूँ प्रियतम दर्श आपके पा जाऊँ तो,      मेरे नैन चमक उठते हैं पाते ही सानिध्य-सुधा के,      घर-संसार दमक उठते हैं मेरे मन की स्वयं समझ लो,        मैं क्या बैन उचारूँ प्रियतम आओ पास हमारे बैठो,     अपलक तुम्हें निहारूँ प्रियतम मुझसे कभी अलग मत होना,             जीवन भारी हो जाएगा बिना तुम्हारे मुझे बता दो,            यह तन कैसे जी पाएगा  जो तुम हाँ कह दो तो हँसकर,       अपना जीवन वारूँ प्रियतम आओ पास हमारे बैठो,    अपलक तुम्हें निहारूँ प्रियतम सहज-समर्पण लगा दाँव पर,        और हृदय भी लगा हुआ है, अपनापन भी साथ रखा है,          तथा समय भी लगा हुआ ...