तख्त - तिजोरी - तलवार ( कविता )
आदिशक्ति थी तलवार
जब वह चलने लगती थी
तख्त सादर सर झुकाता था
तिजोरी गुलाम बन जाती थी ।
तख्त पर जब कोई बैठता था
तलवार सलाम बजाती थी
तलवार के भय से स्वतः
तिजोरी भर - भर जाती थी ।
जिसके पास तिजोरी थी
वह तलवार खरीद लेता था
तलवार की मदद से वह
तख्त पर बैठ जाता था ।
अब वह युग बीत गया
तलवार आगे-आगे चलती थी
पीछे से तिजोरी आकर
तख्त हासिल करती थी ।
आगे-आगे अब तो देखो
कंपनियां तिजोरी लाती है
पीछे से तलवार पहुंच जाती
तख्त पर गुलाम बैठ जाते हैं ।
अब तख्त का महत्व नहीं
तलवार गौण हो गया
तिजोरी के एक इशारे पर
कठपुतलियां नाच रही हैं ।
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