ढ़ोल का पोल ( कविता )
खून की स्याही में
क्रांति की कलम से
मार्क्स ने लिखा कैपिटल
डगमगा गयी धरती
थर्रा उठा आकाश
सब ओर मचा उथल-पुथल।मानव के नस - नस में
गर्म खून खौल गया
नक्शे बदले , बदल गया भूगोल
जन-जन में आस जगी सपने सब हुए जवान
पर खुल गया ढोल का पोल । जहां से हम चले थे
फिर वही पहुंच गए
सागर में बहा खून पसीना
बढ़ गयी थी क्रांति की टोली पर पूंजीपतियों की चाल से
टूट गया सारा सपना ।आओ हम बदल दे
परिभाषा क्रांति की आया शांति - क्रांति का जमाना
अर्थ - राजनीति के साथ-साथ धर्म संस्कृति को भी
हमें है आज बदलना ।
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