वों घड़ी कविता
लौटा दें मुझे वों घड़ी
बचपन हमार हो जहां
मां के हाथों की वों छड़ी
बच्चों का झुंड हो तहां
नदियों की वों पगडण्डी
उछल-उछल कूद-कूदकर
जहां शैतानों की उद्डण्डी
खेल - खेल में हो निकर
पाठशाला में होता आगमन
आचार्यों का मिलता बोधज्ञान
शागिर्दं कर जाता समधिगमन
सदा हो जाता वों महाज्ञान
अभिक्रम का रहता प्रयोजन
कुटुम्ब प्रताप का है अपार
मञ्जूल प्राबल्य हयात संयोजन
ज़िन्दगानी का यहीं अपरम्पार
कलेवर का हो जाता इन्तकाल
पञ्चतत्वों में समा जाता प्राण
तपोकर्मों का आदि अन्त त्रिकाल
सृष्टिकर्तां में समा जाता अप्राण
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