अक्षुण्ण


क्या गारूड़ गो सपना थी !
चेतन मन उस अम्बर में
भवसागर पार चक्षु सुमन में
त्रास - सी आलम्बन थी

वास्तविकता का सूरत नहीं
मुस्तकबिल वारदात इंगित है
अभिवेग परिदृश्य नादिर ही
शून्यता शिखर गाध नहीं

बिन्दु से अक्षुण्ण अनुज्ञा ही
प्रहाण  गर्दिश  रेणु  है
व्योम द्विज परवाना नश्वर रहा
पौ फटा आमद प्रत्याशा है

ओझल विभा  तिमिर नहीं
मृगतृष्णा का इन्द्रियबोध दीप्ति
सारङ्ग तारिका का अनंता
आकर्ष तमन्ना उस नग में

त्रिधरा  नजीर  इन्तिहा भव
तिमिस्त्रा  का  खद्योत  ऊर्मि
गर्व-अग्नि विकट इस धारा का
प्रीति विभूति की अरमान नहीं

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