कच्ची पगडण्डी
कच्ची पगडण्डी के मुसाफिर
कहां चले व्यथा प्रबल किए
व्यथा की उलझनें क्यों तेरी ?
अन्तर्भावना की उत्कण्ठा भरी
मैं उन्मुक्त गगन का परिन्दा
मुझे जग की क्या चित्या ?
कर रही परिमोष दुनिया जहां
मैं विरक्ति विकल व्योम रहा
इस पराभव अभिसार का
तृष्णा भरी ज़िन्दगानी है
नग कर रही है हाहाकार
विलाप करती धरती - समीर
काहिल लोलुप कन्दला महकमा
अपरिहार्यता बन रहा अभिशाप
मख़लूक अवधूत में समा रहा
आक्षिप्त शामत अतुन्द गात
मद्धिम - मद्धिम वितान क़हर रहा
अनैश्वर्य आबण्डर पराकाष्ठा है
द्वैषमान कल्मष शारुक पतन
अवक्षीण अनुगति ज़ियादती है
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