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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

टङ्कार

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अरुक्ष लहर चेतन जलधाम की यह  धार  नहीं   लहू  क्रान्ति अनलकण चट्टान की टङ्कार अङ्गार  हूँ  रण वीर द्युति गर्दिश तिमिर स्याही नखत मरीचि परिव्रज्या इमकानात नफ़ीस पन्थी अवेध्य अश्म शून्यता  में  भरी भ्रान्ति  मिथ्या  विक्षेप  सरसी मृगया मुफलिस कार्ष्णि प्रहाणि तलब अङ्कुश विषाद ज़मीर तम्बीह आलिम नहीं  पाण फ़कीर मुस्तकबिल खल तन्हां अलम अश्मन्त  क्लेश  दुर्दैव  दामन इन्द्रारि अपारग इस्क़ात काल कोलाहल दहर धरा रक्ताल्पता हाहाकार रुग्णता का शीर्णौपाद तारुण्य हरीतिमा जागृत खलक मुहाफ़िज परिवेष्टित हो प्लावित क्षुब्ध मुहुँ निरुद्विग्न का सिन्धु अशनि - पात आतप तजहु कर

अञ्शु नूर

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मारुत  चली वक्त के तालीम गिरि धरा वारिश अवलेप समर घनघोर व्यवधान रही इस मसविदा प्रत्यागमन करूँ या अग्रेषित रहूँ ? इच्छा शक्ति  पखान भग्न क्यों ? आरजू पारावार विस्मृत कहां ? मञ्जुल अनागत का अन्धियारा प्रतिभास बलिण्डा अत्युग्र क्यों ? रोहिताश्व धधक रही उद्विग्नता में अविक्रान्त है मम  प्रज्ञा  तस्कीन अवसान रहा प्राणान्त के  कगारे इम्तहान महासमर में मशक्कत मेरी हौसला  विहग में तरणि मराल व्याघात ही अभ्यनुज्ञा चाक्षुष चन्द्रहास  बनूँ  अलमास  वज्र उच्छेदन कर दूँ  मातम प्रतिकार प्राग्भार  फणीश  उत्ताल अभ्र प्रवाहमान धार निस्सीम ब्रह्माण्ड आत्मोद्भवा प्रज्ज्वलित अञ्शु नूर भव सिन्धु   अधोभुवन   निराकार

अदृश्य मैं

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मृगाङ्क की कलित शबीह पद्मबन्धु की राज्ञी या अभिसर अन्तर्भावना शून्यता में प्रभाव ख्वाबों के भवसागर,  अदृश्य मैं  प्रादुर्भाव कर रहा चेतन हयात रहनुमा बनकर रह गया अकेला इस्तिकबाल कर रही यामिनी तारक  जहां नव आगन्तुक का है अभिसार विकल   घात  दृगम्ब  के   तीर उदधि  अवलम्ब  झष   के  पीर आर्त्तव   नीरद   दीप्ति   नूपुर शून्य  क्षितिज  दिव   अन्तः पुर  सन्सृति अचेत अवरति आसिद्ध मञ्जर अंतर्ज्योति  चैतन्य  इतस्ततः  आदि क्षुण्ण - अक्षुण्ण प्रणव में अन्तर्धान उर्ध्व  स्थिर  अधोगति   पराकाष्ठा आणविक द्वयणुक अवकलित मिलन पुष्पपथ से प्रवर्द्धन जीवन वृति आतम  से  मिला  नवल  चेतन नूतन प्राज्ञत्व कलित पुष्प श्रृङ्गार

द्युतिमा राग

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लम्बे - लम्बे   तरुवर  धरे प्रकृति मेरुदण्ड क्रान्ति  है निदाघ  से सदा बचाती हमें प्राणवायु का करती अभिदान सारिका  की  नाद  रुचिर षुष्प कलित की परवाना है शकुन्त सुकून की नीन्द लेती मख़लूक की जहां रैन बसेरा है पल्लव - मन्दल से आच्छादित हरियाली ताज्जुब तस्दीक जहां अलङ्ग - अलङ्ग कान्तार अनुकृति अवरज   माँझ   दीर्घ   अनुहार वृत्ति जिदगी की मनुहसर रहा रफ़्ता - रफ़्ता पुरोगामी परवरिश अभिषिक्त  करती  देवान्न  मही अम्बु   दीप्ति   वाति   आलम्ब ख़िजाँ शरद सदाबहार नाही प्रस्फुटित होती नव्य माधव में मुकुर  अनादि  द्युतिमा  राग अर्णव तीर अनुषङ्ग कलित धरा

भोर सारङ्ग

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दूर से आती रश्मि आदित्य प्रकाश पुञ्ज की धड़कन है वहीं खुशबू की अलग नजीर क्या खूबसूरती हमार गाँव है ! हिलकोरे करती सरसों डाल बयार   के   बहारों   सङ्ग मान्दगी यतीम तर्पित पीर परिणति प्रारब्ध रन्जिदा रही विदग्ध भरी कृषिवल आमोद बारहिं बारा आफत सहतेउँ  तासु जलप्रलय ऊसर असार तुषार धरा विवशता रही बुभुक्षा  सम्भार पुन्नाग निर्घात अभ्रभेदी रहा ऊर्ध्वमुखी दुरन्त ग्रामीय नेही अक्षोभ रहा अस्तगत आच्छन्न अनाविल अनासक्त छायामय व्यामोह ज्योत्स्ना सौम्य निश्चलता भोर  सारङ्ग  चारु  नव्य  चेतन विहगम कलवर घनानन्द - सी उमङ्ग द्यौ  विदित होता  जग  सन्सार

सन्ताप भरी गौमाता

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महतारी मेरी अभिरति गौमाता उपनिषद् - वेदों के अनुयाता है आर्यावर्त की मञ्जूल भवितव्यता जहां सन्दानिनी अगाध्य अधिष्ठाता परवरिश करती रुधिर गात्र से अनुज्ञा सऋष्टि सन्सार विधाता पञ्चगव्य सोम  जीवनम्  उदधि वनिता गीर्वाण रिहायश जहां आढयता अन्तश्छद् छत्रछाया का प्राणवायु अनन्तर प्रदायी अर्णोद मनीषी सावर्णि अगौढ़ इंद्रियार्थ वेदविहित ऊर्मी ईशित्व उद्ग्राहित धेनु  ललकार  की  कोलाहल रियाया की उपेक्षा का बहार है भक्षक की विडम्बना का आप्यान क्लेश भरी अन्तर्धान दहशत  है अश्रुयस समागम की अधोगति  मानवीयता का परिचार्य कोताही इशरत तिजारत का रङ्गरसिया है हुङ्कार कर रही मन्दसानु सन्ताप

कबीर

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निर्विकार ब्रह्म पराकाष्ठा प्रीति मानिन्द कलेवर भीरू कबीर माहात्म्य निर्वाण आस्मां मार्गिक तुङ्ग अर्णव भव अपार जकात उसूल नाही यथार्थ रही  अमाया   परहित   सर्वतोभाव आडम्बर   का   माहुर   व्याल अधिक्षेप पिपासु अगण्य अश्मन्त आरसी आगस अध्याहार नाही वाम  जगत  अस्मिता  जहल इत्मीनान मृगाङ्क में नखत है कर रहा इख़्तियार अर्दली धीर शमा  अङ्गार  प्रस्फुटित  नाही प्रत्यागमन कर जा तमिस्त्रा में ज्योति धवल समर का धार  पुनर्भाव अवतीर्ण मकर  वारिधि वियङ्ग अनुगामी महानिर्वाण कर  पामर यामिनी का शमशीर बन  ख़ालिक  भव  दिव अब्दि नफ़्स शिति रश्मि सच्चिदानन्द  " कबीर " वरुण सिंह गौतम रतनपुर बेगूसराय बिहार

कच्ची पगडण्डी

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कच्ची पगडण्डी के मुसाफिर  कहां चले व्यथा प्रबल किए व्यथा की उलझनें क्यों  तेरी ? अन्तर्भावना की उत्कण्ठा भरी मैं उन्मुक्त गगन का परिन्दा मुझे जग की क्या  चित्या ?  कर रही परिमोष दुनिया जहां मैं विरक्ति विकल व्योम रहा इस  पराभव  अभिसार  का तृष्णा भरी  ज़िन्दगानी   है नग  कर  रही  है  हाहाकार विलाप करती धरती - समीर काहिल लोलुप कन्दला महकमा अपरिहार्यता बन रहा अभिशाप मख़लूक अवधूत में  समा  रहा आक्षिप्त  शामत  अतुन्द  गात मद्धिम - मद्धिम  वितान क़हर रहा अनैश्वर्य  आबण्डर  पराकाष्ठा है द्वैषमान कल्मष शारुक पतन अवक्षीण अनुगति ज़ियादती है

विश्व दर्शन हूँ

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जो देश है वीर कुर्बानी की विश्व दर्शन हूँ मैं वहां की जिस देश में गंगा बहती है खेत खलियान हरी-भरी रहती है सभी सम्प्रदायों की एकता यहां करते अखंड ज्योति महान तहां भाषा की जननी संस्कृत यहां महाकाव्यों वेदों का देते ज्ञान जहां मोर्य गुप्त साम्राज्यों की वालिदा यहां है युधिष्ठिर अशोक की धरा मिलती है यहां भौगोलिक वैविध्य तहजीब  पञ्चमेल यहां  पराविद्ध सत्यमेव जयते उत्कर्ष नाद है अक्षय दीप्ति सनातन धर्म अन्तर्नाद दत्तचित्त हूँ उन ज्योति शून्यता अन्तर्निवेश अन्तःकरण है उन अरुनता  मुक्ता  रसज्ञा  कतिपय  धरा आलिङ्गन - पाश अखिल उघरारा वृहत  अभेद  सद्वृत्ति  वतीरा अनीक  प्रीति  निस्बत  चीरा

अरुणिमा

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अमरूद लीची तरबूज आम आओ खाओ मेरे प्यारे राम उछलो - कूदो खुशी मनाओ सब मिल एक साथ हो जाओ गर्मी आयी,  आयी बरसात झूम-झूम झमाझम की रात काले - काले अन्धियारे बादल गड़ - गड़, गड़ - गड़ कौन्ध गदल स्वच्छन्द मुल्क का परिन्दा हूँ मैं हूँ इस घोंसले का बाशिन्दा आचार्यों के बड़प्पन का क्या नजीर ! उनके निकेतन की क्या अन्जीर !  देने आया मुबारकबाद ईद त्योहार पैगंबर मोहम्मद का रहनुमा अनाहार भाई - बहनों का अटूट बंधन है प्रेम के धागों से होता रक्षाबंधन है विजयादशमी है विजय का संदेश कर्तव्य मर्यादा सत्यनिष्ठा का रहा उपदेश दीपोत्सव आया आओ सब दीप जलाएं घर में ढेर सारी हर्षोल्लास लाएं  ठण्डी - ठण्डी हवाओं के सङ्ग सब हो रहे हैं यहां अङ्ग - बङ्ग वसन्त ऋतु मौसम बड़ा सुहाना खेचर नाद क्या चुहचुहाना ! खालसा पन्थ की आदि ग्रन्थ महिमा गुरु  पर्व  प्रतिष्ठापक  अरुणिमा देखो क्रिसमस डे की प्रभा सितारा ईसा मसीह आमद का अन्तर्धारा

योगः कुरु कर्माणि कविता

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आरोग्यी वीरुधा मेरी विभूति विहित कर उस दैहिक व्यायाम सम्प्रचक्ष् है जहां योगमुद्रा इल्म चैनों-अमन सौदर्य आयावर्त अपार पद्म वज्र सिद्ध बक मत्स्या वक्र  तुला  गोमुख मण्डुक  शशाङ्क भद्र जानुशिर   उष्ट्र माञ्ज मयूरी सिङ्ह कूर्म पादाङ्गुष्ठ  पादोन्तान मेरुदण्डासन तशरीफ़ कर ताड़ धुवा कोण गरुड़ शोषसिन त्रिकोण वातायन्सन हस्त-पादाङ्गुष्ठ चन्द्रनमस्कार  चक्र उत्थान मेरुदण्ड-बक्का अष्टावक्र स्पर्श अर्धचन्द्र पादप-पश्चिमोत्तानासन लम्बवत्  सर्वांग पवन-मुक्त नौक दीर्घ नौक शत्य  पूर्ण-सुप्त-वज्र मर्कट पादचक्र पादोक्त कर्ण-पीड़ा बाल अनन्त सुप्त-मत्स्येन्द्र  चक्र  सुप्त-मेरुदण्डासन  कशेरुक दण्ड ओज  मकर धनुर भुजङ्ग शलभ खगा नाभि   आकर्ण-धनुरासन   साष्टाङ्ग-नमस्कार विपरीत-मेरुदण्ड   विपरीत-पवनमुक्तासन  शिथिला उदरासन प्रवाहिता परिपाटी तन्दुरुस्त सूर्य-नमस्कार अश्व-सञ्चालन व्यघ्रा  भुजपीड़ा  वृश्चिक शीर्षासन समग्र इन्दियाग्राह्यता सार वेदविहीत अनुसरण मजहब निरन्तर अमूर्त चरितार्थ दत्तचित्तता योगः क...

पितृ परमेश्वर

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गिरिराज होते जहां नतशिर जगन्नियन्ता  के है जो अरदास महारथी है  वो ,   सारथी भी ख्वाहिशों  के  है  सरताज ख्वाबों के हैं  चिन्त्य कायनात मशरूफ़ियत मकुं फौलाद सरीखे जीवन पर्यन्त अजूह स्कन्ध स्तम्भ महाच्छाय अहर्निश कुटुम्ब किमाम सकल दिव्यता सन्तति तात तालीम ड्योढ़ी विरासत दामन मुखरित हूङ्कार प्रखर  नहीं मुआफ़कत  नय  वृहत  नाज सान्त्वना  सहचर अचिर विधु ज़मीर व्यञ्जना निध्यान पन्थी निर्व्याधि फरिश्ता अनुगृहीता हम गोरवन्त गरिमा विप्लव भीरुता चक्षु  सैलाब  विहङ्ग  मञ्जरी चिराग दीप्तिमान्  उज्ज्वल धरा परिणति सर्वेश्वर  नियत  रहबर पितृसत्तात्मक अधिष्ठाता खलक

मैं मिल्खा हूँ

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गिरी  का  दहाड़  नहीं मैं  सागर  की  धार   हूँ  देश  की  तवज्जोह  ही मैं  चेतक  मिल्खा  हूँ  कौन जाने मशक्कत मेरी श्रमबिन्दु कलेवर जज़्बा अभ्यस्त सदा हयात यदि अक्षय नायक पथ प्रशस्त न्योछावर मेरी  इस  ज़मीं तामरस मुक्ता अब्धि नभ खिरमन के उस सौगात  महासमर कुसुम कली नहीं अशक्ता  ही मेरी पुरुषार्थं है पराभव नहीं,  अभिख्यान दस्तूर स्पर्द्धा मन्वन्तर साहचर्य रहा अवलुञ्चित  सौरभ  मधुराई मेरी इतिवृत्त की दास्तां ऋक् तालीम कर,  कायदा शून्य तरणि  प्रभा उस  व्योम  का मुक़द्दर मीन मै उस नीरधि

मां की पीड़ा

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मुफलिस मां की पीड़ा जग में समझे कौन  रोती-बिलखती  सदैव एक रोटी, शिशु के लिए आसरा नहीं किसी का इम्दाद  की चाह भी नहीं बुभुक्षित शिशु को देखके अन्तर्भावना प्रज्ज्वलित उठती अपने वक्षस्थल के दहन से नियति का अपकृष्टता क्या ? भूख  मेरी  कमजोरी नहीं बस शिशु मेरे भूखें न हो कराहने का दिलकशी नहीं बस एक रोटी, तकदीर में नहीं न जाने क्या होगा अञ्जाम है सत्यनिष्ठा कर्तव्य  मेरी शक्ति मां की आह्लाद का क्या सङ्गम !  बच्चें की जुहु क्रन्दन आश्रुति हो  मां की  सच्चिदानन्द प्रीति  महिमा  अञ्जलिबद्ध आस्था आकाङ्क्षा है

अक्षुण्ण

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क्या गारूड़ गो सपना थी ! चेतन मन उस अम्बर में भवसागर पार चक्षु सुमन में त्रास - सी आलम्बन थी वास्तविकता का सूरत नहीं मुस्तकबिल वारदात इंगित है अभिवेग परिदृश्य नादिर ही शून्यता शिखर गाध नहीं बिन्दु से अक्षुण्ण अनुज्ञा ही प्रहाण  गर्दिश  रेणु  है व्योम द्विज परवाना नश्वर रहा पौ फटा आमद प्रत्याशा है ओझल विभा  तिमिर नहीं मृगतृष्णा का इन्द्रियबोध दीप्ति सारङ्ग तारिका का अनंता आकर्ष तमन्ना उस नग में त्रिधरा  नजीर  इन्तिहा भव तिमिस्त्रा  का  खद्योत  ऊर्मि गर्व-अग्नि विकट इस धारा का प्रीति विभूति की अरमान नहीं

मौन क्यों हैं ?

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मौन क्यों है विश्व धरा रुग्णता का सर्वनाश कर परिहार का कलश भरा यन्तणा नहीं,  वफ़ात रहा शून्यता का बटोही नहीं कोलाहल भरी ज़िन्दगानी है तमगा तामीर पुहमी परसाद महाफ़िल   समाँ  अख्तियार रहा तृष्णा लश्कर हाट जहां व्यभिचार घात साया है आतप का वैभव है प्रचंड  काश्त कल्लर गुस्ताख़ रहा हीन क्षुधा निराहार विषाद किल्लत निघ्न आरोह अभिताप निश्छल नहीं,  प्रतारक परजा पाशविक तशरीफ आलिङ्गन क्यों क्या प्राच्य दस्तूर थी,  अब क्या है ? झषाङ्क दिलकशी दर्भासन है दुनिया के चलचित्र आख्यान उच्छिन्न हो रहा ज्ञानशून्य त्रिकाल

पारावार

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घेर - घेर रहा उस नभ को शिथिल  नहीं ,  उग्र   है भानु मृगाङ्क मद्धिम क्यों ? क्या प्रतिघात है नीरद का ? कोई अपचार  तो  नहीं ! या दिवाभीत प्रकाण्ड क्या ? गिरी का  तुगन्ता न  देख देख पारावार की विरक्ति व्यामोह अनुराग परवरिश है मनोवृति समरसता वालिदा जग निर्झरिणी वामाङ्गिनी जिसका अभिवाद  नित करती उस भूधर त्रिशोक  है  कलित  अलङ्कृत प्रसून कानन मञ्जूल  दिव्य   निदाघ अनातय का आलम नहीं  मेह ज्योतित आधृत जलावर्त शून्यता  प्रलय निराकार नहीं क्षुब्द भरे मही प्राज्ञता निरामय हलधर  का ही सम्भार  रीति तनी महरूम पीर समझे कौन ?

ऐ सुशांत

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ऐ सुशांत कहां  है आप  लौट आएं अब इस धरा पर क्या थी उलझनें यहां ? क्यों गए इस खलक से ? कहां गए ? अब कैसे खोजूं इस रञ्जभरी भव छोड़ कहां अन्तर्हित हो गए आप ? सपनों के बहार में आ जा नहीं तो मेरे कभी ख्वाबों में झलक का भी एक पैग़ाम दे जा  ऐ गीर्वाण सुन न मेरी  सार आपको परवाह नहीं मेरी !  मेरा प्राण प्रतिष्ठा हो आप  तेरी विरह अग्नि, रञ्जीदा मेरी इस भग्न हृदय का क्या करूं मैं  यह  वेदना तो  क्षणभङ्गुर नहीं तन - मन की व्यथा प्रबल मेरी कैसे समझाऊं अन्तःकरण को श्रद्धायुक्त करपात्र में क्या कहूं अनन्तर ही  कभी  पनाह देने आ जा  

क्या इत्तेफाक है ?

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क्या इत्तेफाक है जीवन शहर का ? मुलाज़मत के बिना आमद नहीं कर्तव्यों  के  बिना कुटुम्ब  नहीं क्या कहूं  इस  गरोह  पटल का ? यथार्थ - मिथ्या  का  दोष  नहीं अपरती  ही  अशरफ़ मक़ाम पुरुषार्थ  ही  आफ़त  का  धार शाकिर सतत् प्राज्ञता सिद्धि  ध्येय उलझन स्याही में  प्रदीप  नहीं निर्वाह  का  आघात  यहां भी कर्मण्य रहो,  नदीश पतवार सा अचल अविनाशी है  वों भी  तुङ्ग महासमर जीवन का सार तत्त्व अभिजीत - अपमर्श सञ्शय यहां जयश्री अवधार दुसाध्य यहां प्रारब्ध इत्तेफाक उद्यम ऐतबार साक्षात् शिखर पुरुष अनल ऊर्जा इन्द्रोपल पारगमन कमल नयन दूभर नहीं कुछ,  है आवर्त अखण्ड चित्तवृत्ति अथक अनुरञ्जन उदय

आलिङ्गन

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जीवन नहीं,  सृष्टि साक्षात् द्विज अम्बर वामा अनुराग वात्सल्य जलधि  अखण्ड प्रवाह विरह - मिलन किरीट धरणी शगल गुलशन आमोद मीत बहार कलिका पुहुप वेला यहां  अस्मिता  पैग़ाम  कर्तव्यनिष्ठ अवसान नहीं,  अगाध दिव निराकार तुन्द में होरिल इस्लाह सारङ्ग नहीं,  विहङ्गम तरङ्ग प्रतिच्छाया का इम्तिहान नहीं इम्दाद प्रियतम अभिभूत सुरभि मृगाङ्क इन्दुमती तारिका अभ्यन्तर आभामय मुक्ता शून्य ज्योति  तिमिर वनिता आवर्तन अनीश आबरू पराकाष्ठा रजत व्योम आसरा वामल मरीचि धनञ्जय अजेय ध्वजा सऋष्टि आलिङ्गन अनुरक्ति मेल आविर्भाव प्राण सर्वदा आयुष्य  भँवर रीति पतङ्ग

हैवान क्यों

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जात - पात का विष दञ्श अस्पृश्य - लिहाज व्याल दृश मवेशी साम्य निस्बत रहा मानुष डङ्गर विदित क्यों ? बिराना इंसान हैवान क्यों ? आत्मग्राही आक्षिप्त नृलोक हत प्रमाथ देहात्मवाद जहां पाखण्ड अनाचार हर्ज अञ्जाम आमिल दर्प - दमन आबरू अभिवास रहा  दज्जाल भव मुलजिम नहीं,  वों  मनीषी  है महाविचि - करम्भबलुका कृतान्त मही मानवीयता मातम करहा रही मदीय  व्यथा समझें  कौन ? सम्प्रति  भव्यता में  है  अभिमर्षण आत्मीय में हो रहा द्वेष - घृणा विभूति बुभुक्षा  जग - सन्सार कर रहें क्यों हयात - चित्कार ? त्राहिमाम - त्राहिमाम करता भव ईश्वर नहीं,  अनीश्वर  अक़ीदा

पहली बूंदे

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सावन  की  पहली  बूंदे जब  पड़ती  है  धरा  पर लहर  उठती इस मही  से सीलन  कोरक  प्रतिमान उमंग भरी व्योम धरा सिंधु प्रसून मंजर मंदल प्रस्फुटित आदाब कर उस तुंग व्योम को अभ्युन्नति हो इस गर्दिश सुंद खलक तंज मे श्वास का खौफ क्यों निर्वाण हो रहे हरित धरा प्रभूत अतृप्त तृष्णा क्यों जहां  प्रसार नहीं ,  है  यह  सर्वनाश सुनो, जानो, समझो इस धरा को सतत वर्धन दस्तूर साहचर्य रहा मुहाफ़िज़ खिदमत कर अभिसार का देही प्राणवायु इंतकाल को बचा निजाम फरमान हुक्मबरदारी कर अंगानुभूति जन को अग्रसर कर निलय - निकेतन  पर्यावरण  जहां वैयक्तिक जीवंतता वसुंधरा वहां

क्षिति प्रभा

चिड़िया आया चिड़िया आया साथ में एक खिलौना लाया क्या करूं इसका क्या करूं खेलों या इसको तोड़ दो मत देखो उस नभ में क्या नीली सा अम्बर धरा है कहीं चिड़िया की चूं की राग सुरीला मधुर मनोरम - सा कितना प्यारा अम्बर घना है  मेघ का आसरा क्यों है जहां झमाझम करती वर्षा पानी हलदर का अद्भुत उल्लास है इन्द्रायुध की क्या है करिश्मा  व्योम सप्तरंगी विश्व धरा है चौमासा का इस्तिकबाल है भाविता का भी तिमिर यामिनी  हरीतिमा का सुंदर जग यहां क्षिति प्रभा का आबन्डर है द्रुतगामी समीर वारिद नभ त्रास - सी मेदिनी तृप्त भरती

बन जाऊं होशियार

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 मुझे मंजुल चंदा ला दो  मुझे लालिमा सूरज ला दो  ला दो सारा जहां - संसार खेल सकूं हम , झूम सकूं हम कर सकूं हम बड़े नाम मिताली बनूं , बन जाऊं नेहवाल मुझे खिलौना नहीं है लेनी ला दो कॉपी किताब कलम लिखूं - पढ़ूं  बन जाऊं होशियार  मुझे मेला घूमना नहीं है कभी घूमना है प्राचीन अजायबघर देख सकूं प्राचीन गौरव गाथा मुझे दास्तां नहीं सुननी आपकी सुननी है देश का समूचा इतिहास जान सकूं देश का अद्भुत ज्ञान जन्मदिन नहीं मनाएंगे हम कभी लगाएंगे उसी दिन एक गुल्म पेड़ लेंगे हम ऑक्सीजन हमेशा भरपूर शहर में रहेंगे नहीं हम  कभी हम रहेंगे अपने रम्य देहात में खाएंगे हम आम  लीची अमरुद 

पूछूं मैं क्या ?

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अन्तःकरण का सन्ताप नहीं आहलाद का अभिनन्दन है लोक जगत का पूछूं मैं क्या ? पीतवास आपगा  सा यक है होता  ख़ुदग़र्ज़ी  रंक  जहां नृशंसता ब्योहार का बहार रुग्णता उपघात समावेश यहां निवृत्त विराना आश्लेष इज़हार संकुचित रहा प्रवाहमान सरिता दिनेश  निदाघ  दिप्त - प्रचण्डमान अनागत अनाहार अनधिकारिता तवायफ़ उलफत जग अंघ्रिपान अनात्मवाद अक्षोभ होता बेजान चण्ड - दहन अभिहार ईप्सा अकिञ्चन तिमिर वैताल अग्यान अवहत अवसान परीप्सा - प्सा उद्विग्नता प्रतिशोध प्रतिघात ज्वाला विकृति विकार प्रलोभन आहत देही - अलूप वजूद भी दीवाला निपात जगत हो  रहा  अतिहत

स्वच्छन्द हूँ

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रोटीं नहीं  धरा चाहिए परवश नहीं स्वच्छन्द हूँ निर्वाण नहीं प्राण चाहिए पद्याकर कलित अम्बुज हूँ मानव  हूँ   कल्पित काया नहीं आन-बान-शान की प्रभुता मेरी कोरक प्रसून हूँ मुस्तकबिल काहीं दिव्य  व्योममान  उन्मुक्त कनेरी कोकिला का वसंत नाद हूँ नखत अम्बुद क्षोभ विराम शुन्यता  अनश्वर  गात  हूँ नैसर्गिक तरणि प्रबल अभिराम पारावार का अभरम प्रवाही दलक  घोष  अतृप्त  नीर अप्रगल्भ जलार्णव अम्बुवाही सदा उठान हिल्लोल अशरीर नीर व्योम धरा स्वच्छन्दता ओज प्रकृतिमान भव्य भव कणिका प्रकीर्णक इन्द्रच्छन्द जीवन वृति आविर्भाव प्रभव

वों घड़ी कविता

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लौटा दें मुझे वों घड़ी बचपन  हमार हो जहां मां के हाथों की वों छड़ी बच्चों का झुंड हो तहां नदियों की वों पगडण्डी उछल-उछल  कूद-कूदकर जहां शैतानों की उद्डण्डी खेल - खेल में हो  निकर पाठशाला में होता आगमन आचार्यों का मिलता बोधज्ञान शागिर्दं कर जाता समधिगमन सदा  हो जाता वों महाज्ञान अभिक्रम का रहता प्रयोजन कुटुम्ब प्रताप का है अपार मञ्जूल प्राबल्य हयात संयोजन ज़िन्दगानी का यहीं अपरम्पार कलेवर का हो जाता इन्तकाल पञ्चतत्वों में समा जाता प्राण  तपोकर्मों का आदि अन्त त्रिकाल सृष्टिकर्तां में समा जाता अप्राण

धरती मां कविता

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इस धरा की अद्वितीय दाता, वो है हमारी धरती माता। तू सृष्टि की जननी है, तेरे नाम अनेक तू एक ही है। धरती माता तुझे मेरा नमन है, तेरे बिना सृष्टि सूना लगता है। इस धरती पर जन्म लिए, इस धरती पर ही मर जाना है। हम धरती मां के संतान हैं, धरती मां हमारी शान है। इनकी मिट्टी की खुशबू में, एक अनमोल सुगंध मिलती है। पेड़ लगाओ हरियाली लाओ, धरती मां को स्वर्ग बनाओ। प्रदूषण से हो रहा धरती का ह्रास, हम मानव ले रहे चैन की सांस।  एक दिन ऐसा आएगा, धरती का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। हमारा कर्जा धरती मां के ऊपर, इसका कर्ज न कभी चुका पाएंगे। हम इंसान स्वार्थ में अंधे हैं, वह हमारी धरती माता, निस्वार्थ की जननी है।

मैं तड़प रही

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मैं तरफ रही अपनी काया से , मेरी कराहना क्यों नहीं सुन रहें ? मैं अधोगति की कगारे हो रही ,   मैं और कोई नहीं, पर्यावरण हूं । मत काटो मेरे तरुवर छाया को , क्या बिगाड़ा है तेरा मनुज !  जीने क्यों नहीं देते  मुझे ?   मेरी अपरिहार्ता तू क्या जानो ?  जीवों  का आस  है जहां । हयात इंतकाल क्यों कर रहे ? समभार का आत्मविस्मृत द्रुम ,  जियो और जीने दो सदा जहां ।  मत करो पर्यावरण का उपहास  क्यों कर रहे हो खिलवाड़  रक्तस्त्राव का गात प्रपात  अब ना करो मेरी दाह संस्कार  हरीतिमा ध्वस्त, हो रहा विकराल   पानी की है अकुलाहट अब जहां  किल्लत होगी ऑक्सीजन की  दुनिया का होगा हयात इंतकाल

जन्नत की ओर

मेरी कामयाबी की जश्न में  मचा रही है सारी दुनिया शोर .... मगर मेरी निगाहें ये  मुड़ी  है सिर्फ जन्नत की ओर .... न जाने इस दिल ने कितने अपमान सहे   ताकि मिलने को मुझसे,..  हमेशा सब के अरमान  रहें    एक दिन पूरी कायनात मेरा सम्मान करें ... निकल तो गया हूं सफर में  मांगी हुई मन्नत की ओर  मगर चाह रही है राहें मुड़ना  तो सिर्फ जन्नत की  ओर ....  उलझे पड़े थे इतने हम अपने सपनों की खोज में  ना जाने कब और कैसे यह राते बदल गई भोर में....  मेरी कामयाबी की जश्न में  मचा रही है सारी दुनिया शोर...  मगर उठे कदम यह मेरे   तो सिर्फ जन्नत की और..... by palak shreya