विकल पथिक हूँ
मैं चला शून्य के स्पन्दन में
हिम कलित स्वर्ण आभा स्वर में
न्योछावर हो चला इस जग से
प्रतिबिम्बित हूँ प्रणय के बन्धन से
क्षितिज आद्योपान्त विस्मृत - सी
उऋण हूँ पतझड़ वसन्त के अशून्य
उषा कुत्सित क्रन्दन गगन के
यौवन प्रभा है सुरभीत प्राण में
प्रज्ज्वलित सी राग - विराग के स्वप्न में
उपाहास्य उपास्य के त्याज्य तपन के
इस महासमर ज़िन्दगी के भार लिए
कहाँ चलूँ मैं, इस भुजङ्ग तस्वीर में ?
पथ में विचलित चञ्चलचित्त - सी
शरण्य हो चला चित्त साध्य के
अविस्मृत - सी हर्षविह्वल स्वप्निल में
उन्मत्त उद्विग्न - सी इत्मीनान नहीं जो
अनुराग व्यथित पड़ा अभिभूत में
आह्लादित अज्ञ में रञ्ज यथार्थ भरी
कोहरिल गुञ्जित चक्रव्यूह गात से
तिमिर - सी तरुणाई डारि तीरे
ध्रुव - सी दरगुजर दमन दलन के
दुकूल भी होतव्यता नहीं जिसे
निरन्तर निर्जन मर्द्दित अतुन्द में
निस्तब्ध - सा विकल पथिक हूँ मैं
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