घर से गंगा तक का सफर
आज शुक्रवार दिनांक -5 जून 2020 को गंगा मे स्नान के लिए गये थें.गंगा जाने के रास्ते मे मैने कई सारे खेत-खलियान,बाग,घर,दुकान और पेड़-पौधो के हरियाली आदि देखे,जो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह पृथ्वी का ह्रदय हों.उसी क्रम मे कुछ वन्य जीव का ऐसा तालमेल था, जो चीटीं की झुंड कि भाँति लग रहा था कि मानो कि एकता का परिचायक रूप हों.रास्ते-रास्ते मे कभी हवा का झोंका तो कभी घूप की गड़माहट मेरे रगों के तन-मन के भीतर प्रतिछेद कर रही थीं.कभी तो ऐसा लगता था कि मानो धरती की हरियाली मुझे हर हमेशा पर्यावरण की ओर आकर्षित करती थीं.पर्यावरण का सरंक्षण,सततपोषणीय विकास न होना,मुझे चिन्ता के कारण मेरे मन को हर हमेशा कंटक मारती थीं.मेरे मन के अन्दर को खोखला करता जा रहा था,चाहे मूझे हरियाली कितनी भी अच्ची लगें.
जब हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे तो लगता था कि मानो गंगा की कंचन लहरों के आपस मे टकराने से मेरे अन्दर की उठ रही उत्कंटा को और अधिक प्रबल करती थी मानो ऐसा लगता था कि स्वयं वरूण देव का पदार्पण धरती पर हुआ हों.मै जब नीचे पैर किया और मेरे पैर से पानी का स्पर्श हुआ तो मेरे मन मे परांपरिक काल की भागीरथी और गंगा मईया का अवतरण की कथा याद आने लगती थी,गंगा के जल मेरे शरीर को आवेगो से उतल-पुथल कर दिया था इसका प्रभाव मुझे अपने जगह से डगमागने के लिए विवश होना पड़ा .पानी की हिलोरे मेरे मन को तल्लीन कर दिया मानो कि जैसी चीटीं गुड़ के साथ चिपकी रहती है.वहाँ पर मैने देखा कि मजदूर लोग भावी समय मे आने वाले बाढ़ को रोकने के लिए जाल बिछा रहे थे .कई लोग स्नान करके भगवान की आरधना कर रहे थे.वहाँ का भू-स्तर टापू जैसा लग रहा था,कुछेक लोग अंधविश्वास की भाँति गंगा के पानी मे पुजा का कचरा फेंक रहे थे,यह कतई अनुचित था. इन को समझाने वाले कौन थे !
यह लेखन का फंडा है कि हमेशा अपने प्राकृतिक वस्तु का देखभाल करे और सततपोषणीय विकाश करने हेतु हमेशा सजग और सतर्क रहे.
यह लेखन अपने विचार के है।
धन्यवाद
लेखक -वरूण कुमार
जब हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे तो लगता था कि मानो गंगा की कंचन लहरों के आपस मे टकराने से मेरे अन्दर की उठ रही उत्कंटा को और अधिक प्रबल करती थी मानो ऐसा लगता था कि स्वयं वरूण देव का पदार्पण धरती पर हुआ हों.मै जब नीचे पैर किया और मेरे पैर से पानी का स्पर्श हुआ तो मेरे मन मे परांपरिक काल की भागीरथी और गंगा मईया का अवतरण की कथा याद आने लगती थी,गंगा के जल मेरे शरीर को आवेगो से उतल-पुथल कर दिया था इसका प्रभाव मुझे अपने जगह से डगमागने के लिए विवश होना पड़ा .पानी की हिलोरे मेरे मन को तल्लीन कर दिया मानो कि जैसी चीटीं गुड़ के साथ चिपकी रहती है.वहाँ पर मैने देखा कि मजदूर लोग भावी समय मे आने वाले बाढ़ को रोकने के लिए जाल बिछा रहे थे .कई लोग स्नान करके भगवान की आरधना कर रहे थे.वहाँ का भू-स्तर टापू जैसा लग रहा था,कुछेक लोग अंधविश्वास की भाँति गंगा के पानी मे पुजा का कचरा फेंक रहे थे,यह कतई अनुचित था. इन को समझाने वाले कौन थे !
यह लेखन का फंडा है कि हमेशा अपने प्राकृतिक वस्तु का देखभाल करे और सततपोषणीय विकाश करने हेतु हमेशा सजग और सतर्क रहे.
यह लेखन अपने विचार के है।
धन्यवाद
लेखक -वरूण कुमार
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