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मँझधार

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1. मेरे गुरुवर शिक्षा दायिनी मेरे गुरुवर प्रभा प्रज्वलित हो तिमिर में मैं छत्रछाया हूँ आपके अजिर के पराभव अगोचर आपके चरण में पथ – पथ प्रशस्त रहनुमा हमारे कुसीद में साँवरिया आपके भव घन – घन वारि इल्म विस्तीर्ण अक़ीदा प्रज्ञा नय संस्कार अलङ्कृत आराध्य करूँ मैं कलित नव्य हयात पारावार मीन हूँ तड़पित खल तेरी करुणा आनन्दित सरोवर अवलम्ब श्रीहीन अंगानुभूति धरा निश्छल पैग़ाम तहज़ीब बसेरा शून्य शिथिल में मै तर्पित दामिनी प्रारब्ध अकिञ्चन धार दहलीज़ तेरी याचक नूतन चक्षु बूँद स्मृति धूल मैं नतशिर सदा उज्ज्वलित बिरद गिरि दिव में मार्तण्ड स्पृहा जय ध्वनि दीप्ति क्षितिज में 2. विजयपथ रेल – रेल सी ज़िन्दगी में क्या धोखा ? क्या दीवानी हो ? पथ – पथ तिनका बिछाता मन में हो रहा वसुन्धरा सङ्कुचित काया बन बैठी मशक्कत मेरी दुनिया से मैं हूँ गाण्डीव किन्तु अर्जुन नहीं युधिष्ठिर दीपक का चिराग मैं कुरुक्षेत्र शङ्खनाद का रथी नहीं यह ललकार मेरी विजयपथ की मैं लौट आया हूँ अपने जग द्विज बनूँ या अपरिमित नहीं रङ्गमञ्च सौन्दर्य होती उज्ज्वल इस अट्टहास भरी परितोष नहीं अलौकिक निर्मल सुदर्शन बनूँ अप...